शास्त्र कहते हैं कि भारत भूमि कर्म क्षेत्र है। शेष धरा भोग क्षेत्र है। अभी तक हमारे जीवन में प्रकृति के अनेक कार्य करते दिखाई पड़ते हैं। आदमी और औरत की परिभाषा ऎसी किसी देश में नहीं है, जैसी भारत में है। मर्द वह है जो भीतर जीता है। औरत बाहर जीती है। यही ब्रह्म और माया का रूप है। दोनों फिर भी अलग नहीं हो सकते। कई çस्त्रयाँ विधवा होकर जीती हैं। कुछ परित्यक्ता के रूप में। कुछ पति के साथ जला दी जाती थीं। इसके अलावा भी एक श्रेणी है, जहाँ पति के मरने की आशंका मात्र से स्त्री शरीर त्यागने की सोच लेती हैं। इसे ही जौहर कहते हैं। एक स्त्री का जौहर इतिहास में दर्ज हो गया और हजारों का जौहर राजनीति में खो गया।
इतिहास में जितनी चर्चा मीरा बाई की है, उतनी ही बड़ी चर्चा पदि्मनी की भी है। अलाउद्दीन खिलजी की सेना के चित्तौड़गढ़ किले में प्रवेश के साथ ही महारानी पदि्मनी आग में कूद पड़ी। उसके लिए संकल्प की पवित्रता अधिक महत्वपूर्ण थी।
अपने जम्मू एवं कश्मीर प्रवास में मेरा भी साक्षात् एक जीवित पदि्मनी से हुआ। वह स्थान भी देखा, जहाँ जौहर में उनका साथ पुरूषों ने भी दिया। यह दृश्य निश्चित तौर पर अटारी की ट्रेन से ज्यादा वीभत्स रहा होगा, क्योंकि जो कुछ भी कृत्य था, अपनों के जरिए किया हुआ था। शत्रु के छू लेने मात्र की कल्पना भी भयावह थी। क्षण भर में मर जाना और सोच-विचारकर संकल्प के साथ मरने में बड़ा अन्तर होता है।
मई 11 को जम्मू से चलकर राजोरी पहुँचा था। वहाँ सीधा बलिदान भवन गया। स्थानीय पार्षद भारत भूषण शर्मा हमारे साथ थे। बलिदान भवन स्थानीय तहसील का पिछवाड़े वाला हिस्सा है। सन् 1947 के युद्ध या बंटवारे की जंग में पाकिस्तानी कबायलियों के जत्थे पुंछ, राजौरी और जम्मू में आक्रमण कर रहे थे। इन क्षेत्रों में किसान ही थे। न उनके पास हथियार थे, न ही इस घटना के लिए कोई तैयार था। जैसे ही सूचना आई कि आक्रांता हमला करने आ रहे हैं, गाँव के हिन्दू स्त्री-पुरूष तहसील भवन में इकट्ठे हो गए। गाँव की रक्षा में तैनात महाराजा (जम्मू) हरिसिंह जी के प्रभारी अपने 25 लोगों के साथ भाग गए। आक्रांताओं की संख्या हजारों में थी। अस्त्र-शस्त्रों से सुसज्जित भी थे। केन्द्र सरकार को भी महाराजा ने सेना भिजवाने की प्रार्थना की थी, जिसे ठुकरा दिया गया।
कबायलियों के आगे बढ़ने की सूचना, गाँवों में लूटमार, कत्लेआम और बलात्कार की बातें आग की तरह फैल रही थीं। राजौरी की तहसील में बन्द महिलाओं ने अपने पुरूष समुदाय के समक्ष प्रस्ताव रखा कि उन्हें जहर खाने की स्वीकृति दी जाए। बच पाने का दूसरा उपाय नजर नहीं आ रहा। आप लोगों को तो वे तुरन्त मार देंगे। हमें नहीं मारेंगे। पता नहीं किस-किस तरह की यातनाओं से गुजरना पड़े। इसलिए आक्रांताओं के हाथों नहीं पड़ना चाहतीं। इस प्रस्ताव को पुरूषों ने सर्वसम्मति से स्वीकार कर लिया। घटना के साक्षी दो पुरूष एवं एक महिला से हमारा साक्षात् बलिदान भवन में हुआ। उन्हीं में से श्रीमती रामदुलारी (76 वर्ष) ने आँखों देखा हाल हमको सुनाया।
दोनों ही पुरूष भी वहीं बैठे रहे। रामदुलारी ने बताया कि एक-एक करके पुरूषों ने अपनी बहू-बेटियों को जहर बांटना शुरू कर दिया। देखते ही देखते इसका प्रभाव भी सामने आने लगा। दुर्भाग्यवश ही कहें कि जहर चुकता हो गया। महिलाएं अभी बाकी थी। दीवानगी शत्रु से लड़ने की नहीं थी। शत्रु के दुर्व्यवहार से बचने की भी थी। भावनाएं चरम पर रही होंगी। çस्त्रयों का दूसरा प्रस्ताव आया कि जिन-जिन के पास भी बंदूकें हैं, हमें मार दें। बंदूकें कम थी। दो-दो महिलाओं को एक-एक बार में मारा गया। गोलियाँ भी जल्दी ही समाप्त हो गई। तब फिर महिलाओं ने प्रार्थना की कि जल्दी करें। अपने शस्त्रों से हमारा गला काट दें। क्या माहौल रहा होगा। प्रस्ताव स्वीकार हो गया।
श्रीमती रामदुलारी ने बताया कि पुरूषों ने अपनी कटारें, तलवारें निकाल ली, तहसील में ही बने एक कुएं के पास पहुंचे और एक-एक महिला का सिर काटकर कुएं में डालते गए। छोटे बच्चों को छोड़ दिया गया। स्वयं श्रीमती राम दुलारी बारह साल की थी। इनकी मां को इनका जीवित रहना मंजूर नहीं था। अपने ससुर की कटार से इनके सिर पर तीन वार किए। हमको इन्होंने सिर से पल्ला हटाकर वे घाव दिखाए। स्वयं तो बेहोश हो गई थी, कैसे बची, नहीं मालूम।
गाँव की आबादी लगभग चार हजार थी। आस-पास के गांवों से भी लोग भागकर राजौरी पहुंच गए थे। स्थानीय बाशिन्दे भी आक्रांताओं के साथ हो चुके थे। भीतर-बाहर मिलाकर लगभग बीस हजार लोग शहीद हो गए। यह सबसे बड़ा नरसंहार था। जिसे आज किसी भी रूप में याद नहीं किया जाता। शहीद दिवस पर भी इनके लिए दो शब्द नहीं कहे जाते। जो बच्चे बच गए थे, वे भी पाकिस्तानियों के कब्जे में ही रहे। यह दिवाली की काली रात बनकर रह गई। किन्तु श्रीमती रामदुलारी ने कहा कि आप राजस्थान से आए हैं, जहाँ रानी पदि्मनी का जौहर इतिहास में दर्ज है।
हमने भी उसी जौहर का अनुकरण करके दिखाया, जिस पर हम गर्व करते हैं। हमें खेद नहीं कि हमारी गाथा किसी ने सुनी या नहीं। केन्द्र सरकार ने घटना का उपयोग अपनी राजनीति करने में लिया। जब महाराजा ने लोगों को बचाने के लिए सेना भेजने की गुहार दोहराई, तब केन्द्र ने जम्मू सरकार के समक्ष विलय स्वीकार करने की शर्त रखी। महाराजा ने शर्त स्वीकार की और छह माह बाद सेना पहुंची। बैसाखी के दिन, छह माह की गुलामी काटकर, लोगों ने स्वतंत्रता मनाई। आज भी उन्हें शिकायत नहीं है कि सरकार उनकी ओर झांकती भी नहीं है। तहसील भवन को स्मारक बनाने की स्वीकृति भी नहीं दी। तब के बच्चे आज बूढ़े हैं। स्मृतियाँ ही अब इनकी धरोहर रह गई हैं।
(लेखक राजस्थान पत्रिका के प्रधान संपादक हैं)
साभार-राजस्थान पत्रिका से
बहुत मार्मिक...अन्दर तक झकझोर दिया...
ReplyDeleteअन्दर तक हिला कर रख दिया इस बर्बरता ने।
ReplyDeleteपंडित जी, इतिहास कुरेदकर देखेंगे तो पता चलेगा कि राष्ट्र को जीवित और इसका सर ऊँचा रखने के लिए हिंदू कौम ने कैसे कैसे बलिदान दिए.
ReplyDeleteरोंगटे खड़े कर देने को काफी है यह व्यवहार.
ReplyDelete