Tuesday, December 31, 2013

जिस तरह से एक मच्छर साला आदमी को हिजड़ा बना सकता है ठीक उसी तरह से एक गद्दार देश को गुलाम बना सकता है ....

राजीव dixit की स्पीच ....का एक पार्ट मीर जाफर एक देश का गद्दार ...
मेरे एक परिचित है प्रोफेसर धरमपाल, वो ४० वर्ष तक यूरोप में रहे है, मैंने एक बार उनको एक चिट्ठी लिखी, मैंने कहा सर, मै ये जानना चाहता हु बेसिक क्वेश्चन कि पलासी के युद्ध में अंग्रेजो के पास कितने सिपाही थे. तो उन्होंने कहा देखो राजीव, अगर तुमको ये जानना है तो बहुत कुछ जानना पड़ेगा, और तुम तैयार हो जानने के लिए, तो मैंने कहा मै सब जानना चाहता हु. मै इतिहास का विद्यार्थी नहीं लगा लेकिन इतिहास को समझना चाहता हु कि ऐसी कौन सी ख़ास बात थी जो हम अंग्रेजो के गुलाम हो गए, ये समझ में तो आना चाहिए अपने को, कि कैसे हम अंग्रेजो के गुलाम हो गए. ये इतना बड़ा देश, ३४ करोड़ की आबादी वाला देश ५० हजार अंग्रेजो का गुलाम कैसे हो गया ये समझना चाहिए. तो वो पलासी के युद्ध पर से वो समझ में आया. उन्होंने कुछ दस्तावेज़ मुझे भेजें, फोटोकॉपी करा के और मेरे पास अभी भी है. उन दस्तावेजो को जब मै पढता था तो मुझे पता चला कि पलासी के युद्ध में अंग्रेजो के पास मात्र ३०० सिपाही थे, ३ हंड्रेड. और सिराजुद्दोला के पास १८,००० सिपाही थे. अब किसी भी सामने के विद्यार्थी से, बच्चे से, या सामान्य बुद्धि के आदमी से आप ये पूछो के एक बाजु में ३०० सिपाही, और दुसरे बाजु में १८,००० सिपाही, कौन जीतेगा? १८,००० सिपाही जिनके पास है वो जीतेगा. लेकिन जीता कौन ? जिनके पास मात्र ३०० सिपाही थे वो जीत गए, और जिनके पास १८,००० सिपाही थे वो हार गए. और हिंदुस्तान के, भारतवर्ष के एक एक सिपाही के बारे में अंग्रेजो के पार्लियामेंट में ये कहा जाता था कि भारतवर्ष का १ सिपाही अंग्रेजो के ५ सिपाही को मारने के लिए काफी है, इतना ताकतवर, तो इतने ताकतवर १८,००० सिपाही अंग्रेजो के कमजोर ३०० सिपाहियो से कैसे हारे ये बिलकुल गम्भीरता से समझने की जरुरत है. और उन दस्तावेजो को देखने के बाद मुझे पता चला कि हम कैसे हारे. अंग्रेजो की तरफ से जो लड़ने आया था उसका नाम था रोबर्ट क्लाइव, वो अंग्रेजी सेना का सेनापति था. और भारतवर्ष की तरफ से जो लड़ रहा था सिराजुद्दोला, उसका भी एक सेनापति था, उसका नाम था मीर जाफ़र. तो हुआ क्या था रोबर्ट क्लाइव ये जनता था कि अगर भारतीय सिपाहियो से सामने से हम लड़ेंगे तो हम ३०० लोग है मारे जाएँगे, १ घंटे भी युद्ध नहीं चलेगा. और क्लाइव ने इस बात को कई बार ब्रिटिस पार्लियामेंट को चिट्ठी लिख के कहा था. क्लाइव की २ चिट्ठियाँ है उन दस्तावेजो में, एक चिट्ठी में क्लाइव ने लिखा कि हम सिर्फ ३०० सिपाही है, और सिराजुद्दोला के पास १८००० सिपाही है. हम युद्ध जीत नहीं सकते है, अगर ब्रिटिश पार्लियामेंट अंग्रेजी पार्लियामेंट ये चाहती है कि हम पलासी का युद्ध जीते, तो जरुरी है कि हमारे पास और सिपाही भेजे जाए. उस चिट्ठी के जवाब में क्लाइव को ब्रिटिश पार्लियामेंट की एक चिट्ठी मिली थी और वो बहुत मजेदार है उसको समझना चाहिए. उस चिट्ठी में ब्रिटिश पार्लियामेंट के लोगों ने ये लिखा कि हमारे पास इससे ज्यादा सिपाही है नहीं. क्यों नहीं है ? क्योकि १७५७ में जब पलासी का युद्ध शुरु होने वाला था उसी समय अंग्रेजी सिपाही फ़्रांस में नेपोलियन बोनापार्ट के खिलाफ लड़ाई लड़ रहे थे. और नेपोलियन बोनापार्ट क्या था अंग्रेजो को मार मार के फ़्रांस से भगा रहा था. तो पूरी की पूरी अंग्रेजी ताकत और सेना नेपोलियन बोनापार्ट के खिलाफ फ़्रांस में लडती थी इसी लिए वो ज्यादा सिपाही दे नहीं सकते थे, तो उन्होंने कहा अपने पार्लियामेंट में कि हम इससे ज्यादा सिपाही आपको दे नहीं सकते है. जो ३०० सिपाही है उन्ही से आपको पलासी का युद्ध जीतना होगा. तो रोबर्ट क्लाइव ने apaaaaaaaaaअपने दो जासूस लगाए, उसने कहा देखो युद्ध लड़ेंगे तो मारे जाएँगे, अब आप एक काम करो, उसने दो अपने साथिओं को कहा कि आप जाओ और सिराजुद्दोला की आर्मी में पता लगाओ कि कोई ऐसा आदमी है क्या जिसको रिश्वत दे दें. जिसको लालच दे दें. और रिश्वत के लालच में जो अपने देश से गद्दारी करने को तैयार हो जाए, ऐसा आदमी तलाश करो. उसके दो जासूसों ने बराबर सिराजुद्दोला की आर्मी में पता लगाया कि हां एक आदमी है, उसका नाम है मीर जाफर, अगर आप उसको रिश्वत दे दो, तो वो हिंदुस्तान को बेंच डालेगा. इतना लालची आदमी है. और अगर आप उसको कुर्सी का लालच दे दो, तब तो वो हिंदुस्तान की ७ पुश्तो को बेंच देगा. और मीर जाफर क्या था, मीर जाफर ऐसा आदमी था जो रात दिन एक ही सपना देखता था कि एक न एक दिन मुझे बंगाल का नवाब बनना है. और उस ज़माने में बंगाल का नवाब बनना ऐसा ही होता था जैसे आज के ज़माने में बहुत नेता ये सपना देखते है कि मुझे हिंदुस्तान का प्रधानमंत्री बनना है, चाहे देश बेंचना पड़े. तो मीर जाफर के मन का ये जो लालच था कि मुझे बंगाल का नवाब बनना है. माने कुर्सी चाहिए, और मुझे पूंजी चाहिए, पैसा चाहिए, सत्ता चाहिए और पैसा चाहिए. ये दोनो लालच उस समय मीर जाफर के मन में सबसे ज्यादा प्रबल थे, तो उस लालच को रोबर्ट क्लाइव ने बराबर भांप लिया. तो रोबर्ट क्लाइव ने मीर जाफर को चिट्ठी लिखी है. वो चिट्ठी दस्तावेजो में मौजूद है और उसकी फोटोकोपी मेरे पास है. उसने चिट्ठी में दो ही बातें लिखी है, देखो मीर जाफर अगर तुम अंग्रेजो के साथ दोस्ती करोगे, और ईस्ट इंडिया कंपनी के साथ समझौता करोगे, तो हम तुमको युद्ध जीतने के बाद बंगाल का नवाब बनाएँगे. और दूसरी बात कि जब आप बंगाल के नवाब हो जाओगे तो सारी की सारी सम्पत्ति आपकी हो जाएगी. इस सम्पत्ति में से ५ टका हमको दे देना, बाकि तुम जितना लूटना चाहो लुट लो. मीर जाफर चूँकि रात दिन ये ही सपना देखता था कि किसी तरह कुर्सी मिल जाए, और किसी तरह पैसा मिल जाए, तुरंत उसने वापस रोबर्ट क्लाइव को चिट्ठी लिखी और उसने कहा कि मुझे आपकी दोनों बातें मंजूर है. बताईए करना क्या है ? तो आखरी चिट्ठी लिखी है रोबर्ट क्लाइव ने मीर जाफर को कि आपको सिर्फ इतना करना है कि युद्ध जिस दिन शुरु होगा, उस दिन आप अपने १८,००० सिपाहियो को कहिए की वो मेरे सामने सरेंडर कर दें बिना लड़े. मीर जाफर ने कहा कि आप अपनी बात पे कायम रहोगे ? मुझे नवाब बनाना है आपको. तो रोबर्ट ने कहा कि बराबर हम अपनी बात पे कायम है, आपको हम बंगाल का नवाब बना देंगे. बस आप एक ही काम करो कि अपनी आर्मी से कहो, क्योकि वो सेनापति था आर्मी का, तो आप अपनी आर्मी को आदेश दो कि युद्ध के मैदान में वो मेरे सामने हथियार डाल दे, बिना लड़े, मीर जाफर ने कहा कि ऐसा ही होगा. और युद्ध शुरु हुआ २३ जून १७५७ को. इतिहास की जानकारी के अनुसार २३ जून १७५७ को युद्ध शुरु होने के ४० मिनट के अंदर भारतवर्ष के १८,००० सिपाहियो ने मीर जाफर के कहने पर अंग्रेजो के ३०० सिपाहियो के सामने सरेंडर कर दिया.

रोबर्ट क्लाइव ने क्या किया कि अपने ३०० सिपाहियो की मदद से हिंदुस्तान के १८,००० सिपाहियो को बंदी बनाया, और कलकत्ता में एक जगह है उसका नाम है फोर्ट विलियम, आज भी है, कभी आप जाइए, उसको देखीए. उस फोर्ट विलियम में १८,००० सिपाहियो को बंदी बना कर ले गया. १० दिन तक उसने भारतीय सिपाहियो को भूखा रखा और उसके बाद ग्यारहवे दिन सबकी हत्या कराई. और उस हत्या कराने में मीर जाफ़र रोबर्ट क्लाइव के साथ शामिल था, उसके बाद रोबर्ट क्लाइव ने क्या किया, उसने बंगाल के नवाब सिराजुद्दोला की हत्या कराई मुर्शिदाबाद में, क्योकि उस जमाने में बंगाल की राजधानी मुर्शिदाबाद होती थी, कलकत्ता नही. सिराजुद्दोला की हत्या कराने में रोबर्ट क्लाइव और मीर जाफ़र दोनों शामिल थे. और नतीजा क्या हुआ ? बंगाल का नवाब सिराजुद्दोला मारा गया, ईस्ट इंडिया कंपनी को भागने का सपना देखता था इस देश में वो मारा गया, और जो ईस्ट इंडिया कंपनी से दोस्ती करने की बात करता था वो बंगाल का नवाब हो गया, मीर जाफ़र. इस पुरे इतिहास की दुर्घटना को मै एक विशेष नजर से देखता हु. मै कई बार ऐसा सोंचता हु कि क्या मीर जाफ़र को मालूम नहीं था कि ईस्ट इंडिया कंपनी से दोस्ती करेंगे तो इस देश की गुलामी आएगी ? मिर जाफ़र जानता था इस बात को. मीर जाफ़र बराबर जानता था कि मै मेरे कुर्सी के लालच में जो खेल खेल रहा हु उस खेल में इस देश को सैंकड़ो वर्षो की गुलामी आ सकती है. ये वो जनता था. और ये भी जानता था कि अपने स्वार्थ में, अपने लालच में मै जो गद्दारी करने जा रहा हु इस देश के साथ उसके क्या दुष्परिणाम होंगे, वो भी उसको मालूम थे.

मै ऐसा सोंचता हु कि हम गुलामी से आजाद हो जाते, क्योकि १८,००० सिपाही हमारे पास थे और ३०० अंग्रेज सिपाहियो को मारना बिलकुल आसन काम था हमारे लिए. हम १७५७ में ही अंग्रेजो की गुलामी से आजाद हो जाते एक बात और दूसरी बात ये जो २०० वर्षो की गुलामी हमको झेलनी पड़ी १७५७ से १९४७ तक, और उस २०० वर्ष की गुलामी को भागने के लिए ६ लाख लोगों की जो क़ुरबानीयां हमको देनी पड़ी, वो बच गया होता. भगत सिंह, चंद्रशेखर, उधम सिंह, तांत्या टोपे, झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई, सुभाष चन्द्र बोस, ऐसे ऐसे नौजवानों की कुर्बानिया दी है ये कोई छोटे मोटे लोग नहीं थे. सुभाष चन्द्र बोस तो आईपीएस टोपर थे, उधम सिंह चाहता तो ऐयासी कर सकता था, बड़े बाप का बेटा था. भगत सिंह और चंद्रशेखर की भी यही हैसियत थी. चाहते तो जिन्दगी की, जवानी की रंगरलियां मानते और अपनी नौजवानी को ऐसे फंदे में नहीं फ़साते. ये सारे वो नौजवान थें जिनका खून इस देश के लिए बहुत महत्वपूर्ण था. ६ लाख ऐसे नौजवानों की कुर्बानियां जो हमने दी, वो नहीं देनी पड़ती. और अंग्रेजो की जो यातनाए सही, जो अपमान हमने बर्दास्त किया, वो नहीं करना पड़ता अगर एक आदमी नहीं होता, मीर जाफ़र. लेकिन चूँकि मीर जाफ़र था, मीर जाफ़र का लालच था, कुर्सी का और पैसे का, उस लालच ने इस देश को २०० वर्ष के लिए गुलाम बना दिया.

आज तो देश मैं बहुत से मीर जाफर है ....

जय बाबा बनारस....

Friday, December 27, 2013

अवसर बड़ा या छोटा नही होता है

एक बार एक ग्राहक चित्रो की दुकान पर गया । उसने
वहाँ पर अजीब
से चित्र देखे । पहले चित्र मे चेहरा पूरी तरह बालो से
ढँका हुआ था और पैरोँ मे पंख थे ।एक दूसरे चित्र मे सिर
पीछे से गंजा था।
ग्राहक ने पूछा – यह चित्र किसका है?
दुकानदार ने कहा – अवसर का ।
ग्राहक ने पूछा – इसका चेहरा बालो से ढका क्यो है?
दुकानदार ने कहा -क्योंकि अक्सर जब अवसर आता है
तो मनुष्य उसे पहचानता नही है ।
ग्राहक ने पूछा – और इसके पैरो मे पंख क्यो है?
दुकानदार ने कहा – वह इसलिये कि यह तुरंत वापस
भाग जाता है, यदि इसका उपयोग न हो तो यह तुरंत
उड़ जाता है ।
ग्राहक ने पूछा – और यह दूसरे चित्र मे पीछे से
गंजा सिर किसका है?
दुकानदार ने कहा – यह भी अवसर का है ।
यदि अवसर को सामने से ही बालो से पकड़ लेँगे तो वह
आपका है ।अगर आपने उसे थोड़ी देरी से पकड़ने
की कोशिश की तो पीछे का गंजा सिर हाथ आयेगा और
वो फिसलकर निकल जायेगा । वह ग्राहक इन
चित्रो का रहस्य जानकर हैरान था पर अब वह बात
समझ चुका था ।
दोस्तो,
आपने कई बार दूसरो को ये कहते हुए
सुना होगा या खुद भी कहा होगा कि ’हमे अवसर
ही नही मिला’ लेकिन ये अपनी जिम्मेदारी से भागने
और अपनी गलती को छुपाने का बस एक बहाना है ।
असल  मे भगवान ने हमे ढेरो अवसरो के बीच जन्म
दिया है । अवसर हमेशा हमारे सामने से आते जाते
रहते है पर हम उसे पहचान नही पाते या पहचानने मे
देर कर देते है । और कई बार हम सिर्फ इसलिये चूक
जाते है क्योकि हम बड़े अवसर के ताक मे रहते हैं ।
पर अवसर बड़ा या छोटा नही होता है । हमे हर अवसर
का भरपूर उपयोग करना चाहिये ....


जय बाबा बनारस....

Wednesday, December 25, 2013

भारतीय संस्कृति तथा सनातन धर्म के सच्चे रक्षक

25 दिसंबर 1861 को इलाहाबाद में जन्में बनारस हिंदू विश्वविद्यालय के प्रणेता महामना पंडित मदन मोहन मालवीय इस युग के आदर्श पुरुष थे। महामना भारतीय संस्कृति तथा सनातन धर्म के सच्चे रक्षक थे।
पंडित जी ने अपने कार्य और लेखन के जरिए अंग्रेजों को हमेशा परेशान किया था। अपने जीवन-काल में पत्रकारिता, वकालत, समाज-सुधार, मातृ-भाषा तथा भारतमाता की सेवा में अपना जीवन अर्पण करने वाले इस महामानव ने जिस विश्वविद्यालय की स्थापना की उसमें उनकी परिकल्पना ऐसे विद्यार्थियों को शिक्षित करके देश सेवा के लिए तैयार करने की थी, जो देश का मस्तक गौरव से ऊचा कर सकें। यह द्रष्टव्य है कि महामना मालवीय सत्य, ब्रह्मचर्य, व्यायाम, देशभक्ति तथा आत्म-त्याग में इस देश में अद्वितीय स्थान रखते थे। इस बात को दोहराने की आवश्यकता नहीं है कि उपर्युक्त समस्त आचरण पर महामना सदैव उपदेश ही नहीं देते थे, परन्तु उसका सर्वथा पालन भी किया करते थे। तीन बार अखिल भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अध्यक्ष रहने के बावजूद अपने व्यवहार में महामना सदैव मृदुभाषी रहे। कर्म ही उनका जीवन था। ढेर सारी संस्थाओं के जनक एवं सफल संचालक के रूप में उनकी विधि-व्यवस्था का सुचारू सम्पादन करते हुए भी रोष अथवा कड़ी बोली का प्रयोग कभी नहीं किया। 12 नवंबर 1946 को यह महान आत्मा स्वर्ग सिधार गई।

लोगों को संस्कृति, साहित्य और शिक्षा से जोड़ने का काम करने वाले महामना को हम सबका महा-नमन। देश के विकास के लिए हमें महामना के बताए मार्ग पर चलने के साथ दूसरों को भी इसके लिए प्रेरित करना होगा।


जय बाबा बनारस....

Sunday, December 1, 2013

शेरसिह की तरक्की

शेरसिह पुलिस मे नौकरी करता था, उस रेंज के आय.जी.साहब की और से खबर आई कि उन्हे शेर का शिकार करना है शिकार की व्यवस्था हो गई शेरसिह ने मचान बन्धवा दिया और कुछ दुरी पर बकरे के गले मे घंटी बान्ध दी कि शेर आये बकरे का शिकार करने और आय.जी.साहब फिर शेर का शिकार करे.. साहब आये अपनी बीबी और बेबी के साथ , साथ मे डी.आय.जी.साहब और एस.पी.साहब भी, सभी मचान पर बैठ गये, शेरसिंह टार्च लेकर खड़ा था कि कि जैसे ही शेर को देख घबराहट मे बकरे की घंटी बजे वो टार्च की रोशनी डाले और आय.जी.साहब बन्दुक चलाये, काफी देर हो गई शेर नही आया बेबी ने पुछा मम्मी शेर कब आयेगा, मम्मी ने आई.जी .साहब से, आई.जी. ने डी.आई.जी.से , डी.आई जी.ने एस.पी.से , एस.पी ने शेरसिह से, शेरसिंह ने कहा कि जब साहब आये है तो शेर जरूर आयेगा सरकारी हुक्म है कौन टाल सकता है, सब पास-पास ही बैठे थे,तो उसी क्रम मे बात बेबी तक पहुचाई गई जिस क्रम मे वह फाईल की तरह मूव् हुई थी, तभी एक दहाड़ सुनाई दी.. डर से सबका जीवन -जल कपड़ो से निकल कर बह गया, शेरसिह ने टार्च फेकी , भले जी जीवन-जल निकल जाने से शक्ति तो ना बची थी पर चूकि प्रतिष्ठा का सवाल था तो आय.जी.साहब ने कांपते हाथो से बंन्दुक चला दी, निशाना लगाया था शेर पर, लेकिन सरकारी निशाना है , तो लगा बकरे पर, अन्धेरा था शेरसिह छोटा कर्मचारी था तो उसके अलावा किसी को नही दिखा किस पर चोट हुई , आई.जी साहब ने डी.आई.जी.साहब से पुछा कि शिकार कैसा रहा , तो फिर वही फाईल की तरह क्रम शेरसिह तक. शेरसिह होशियार था, बकरे का नाम लिये बिना कहा "शिकार अंतिम सांस ले रहा है,.." यह मेसेज फाईल की तरह फिर आई.जी. साहब तक पहुचा आई.जी.साहब ने पत्नि से मुस्कराते हुवे कहा कि कहा "शिकार अंतिम सांस ले रहा है, .." बात बेबी तक पहुचने के बाद साहब वहा से निकल लिये, और डी.आय.जी.साहब ने शेरसिह की तरक्की के लिये रिकमेंड कर दिया, शिकार बकरे का और तरक्की शेरसिह की, देखो तो कहानी है और सोचो तो सरकारी फाईल के चलने का ढंग़ ...!!