Friday, July 9, 2010

आम आदमी की बेबसी झलक

बंद में आम आदमी की बेबसी झलक

जोसफ बर्नाड
भारत बंद के अगले दिन मैं अपने एक पत्रकार मित्र के साथ प्रेस क्लब में चाय पी रहा थ
ा। मेरा वह मित्र एक अपोजीशन पार्टी को कवर करता है। चाय पीते हुए हम पुराने दिनों की यादें ताजा कर रहे थे, तभी उसके मोबाइल की घंटी बजी। मित्र ने मुझे चुप रहने का इशारा किया। पार्टी के नेता का फोन था। मित्र बोला- सर कैसे हो? आवाज आई- अच्छा हूं, मगर बंद की कवरेज का मजा नहीं आया। इतना नेगेटिव करवेज मीडिया ने क्यों किया। घाटे के आंकड़े, क्या बकवास है। मित्र ने कोई जवाब नहीं दिया। नेता का बोलना जारी था- हमने प्रेस रिलीज जारी किया है। बंद सफल रहा, सब जगह लोगों ने भरपूर समर्थन दिया। मित्र अचानक बोला- लेकिन लोग बहुत परेशान हुए।

गाड़ियां चलने नहीं दी गईं। मेट्रो तक को नहीं छोड़ा गया। इस पर नेता का टोन बदल गया, आवाज कड़क हो गई- बंद में ऐसा होता है। एक ही दिन तो लोगों को परेशानी हुई। इसमें इतना हाय-तौबा... आखिर उनके लिए ही तो यह सब था। मित्र थोड़ा उत्तेजित होकर कहा- यह तो सरासर गुंडागर्दी है। बंद कीजिए, मगर लोगों को तंग मत करिए। इस बार नेता को हंसी आ गई। बोले- ज्यादा इमोशनल हो रहे हो। मित्र बोला- कार्यकर्ताओं को गुंडागर्दी करने से रोका जा सकता था। नेता का सब्र टूटा- भैया जोश में आगे-पीछे कुछ हो जाता है। हम तो कहते हैं, बंद के दिन लोगों को घर से निकलना ही नहीं चाहिए। .... अच्छा, रिलीज भेज दिया है, लगवा देना। मित्र ने बड़बड़ाते हुए फोन काटा। मैं उसके चेहरे को पढ़ने की कोशिश करने लगा। कुछ गड़बड़ तो नहीं हुआ, हल्के से पूछा।

पहले तो उसने मुझे घूरा, फिर बोला- क्या बताऊं, पत्नी स्कूल में टीचर है। बच्चा भी उसी स्कूल में पढ़ता है। बंद वाले दिन प्रिंसिपल को फोन लगाया तो उसने हड़का दिया- आज जरूर आना है। स्कूल बस में पत्नी और बच्चे को बिठाकर मैं घर आ गया। करीब आधे घंटे बाद पत्नी का फोन आया- बंद कराने वालों ने स्कूल बस की हवा निकाल दी है। बच्चे रो रहे हैं, जल्दी आओ। मैं गाड़ी लेकर पहुंचा। देखा, बीच सड़क पर बस खड़ी थी। दस-पंदह लोग बस को डंडे से मार रहे थे। बच्चे डर के मारे चिल्ला रहे थे। बस में छह लेडीज और एक पुरुष टीचर, सब डरे हुए थे। मैंने कुछ बच्चों के पैरेंट्स को बुलाया।

कई बार फोन करने के बाद पुलिस आई। स्कूल फोन करके गाड़ियां मंगवाई और बच्चों को स्कूल लेकर गए। यह सब बताकर मित्र गुस्से में बोला- यही है लोकतंत्र में बंद की हकीकत। एक बंद को सफल करने के लिए गुंडागदीर् कर रहा है। दूसरा, बंद को विफल करने के लिए लोगों को बिना सुरक्षा दिए स्कूल खोल रहा है, दफ्तर बुला रहा है। किसी को आम आदमी की परवाह नहीं है। अगर मेरी पत्नी और बच्चे को कुछ हो जाता तो...। मित्र ने सिर झुका लिया। मैंने उसे देखा। उसकी आंखों में आंसू की छोटी बूंद के रूप में आम आदमी की बेबसी झलक रही थी।

1 comment:

  1. बहुत सटीक आलेख प्रस्तुति....बंद के दौरान आम आदमी को परेशानी तो होती है उसकी बेबसी उसके चहरे पर झलक जाती है...

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