Thursday, July 15, 2010

प्रतिभाशाली का विद्रोह दुर्भाग्यपूर्ण होता है।

आज एक लेख दीनिक जागरण मैं पढ़ा उसकी एक line दिल को छु गयी प्रतिभाशाली का विद्रोह दुर्भाग्यपूर्ण होता है। दवा का ही बीमारी बन जाना खतरनाक है। आरक्षण सामाजिक आर्थिक पिछडे़पन की अस्थाई दवा थी, लेकिन अब राष्ट्र-राज्य की स्थाई बीमारी है। यह लोकनियोजन में अवसर की समता के संवैधानिक अधिकार के विरुद्ध है। स्वस्थ प्रतिस्पर्धा में अन्याय है। क्षमतावान की निराशा है। 1949 में संविधान सभा में तत्कालीन प्रधानमंत्री पं. नेहरू ने ठीक कहा था, मैं तो यहां तक चाहता हूं कि जो आरक्षण रह गए हों वे भी समाप्त हों, किंतु वर्तमान परिस्थिति में अनुसूचित जाति का आरक्षण हटाना सही नहीं होगा। आरक्षण अस्थाई व्यवस्था थी, इसे समाप्त करना राष्ट्रीय कर्तव्य है। बावजूद इसके भारतीय राजनीति में आरक्षण का कैंसर है। मजहबी आरक्षण की अलगाववादी मांग सामने है। जाट आरक्षण की मांग में राष्ट्रमंडल खेलों में बाधा डालने की धमकी है। महिला आरक्षण के भीतर अनुसूचित, पिछड़े व मुस्लिम हिस्से की मांगे हैं। मतांतरित दलित ईसाई/मुसलमान भी आरक्षण मांग रहे हैं। सवर्ण भी आर्थिक आधार पर आरक्षण के दावेदार हैं। सबको आरक्षण चाहिए। आरक्षण वोट दिलाऊ हथियार है सो सारे दल आरक्षणवादी हैं। कुछ खुल्लम-खुल्ला तो कुछ संकोच के साथ। सुप्रीम कोर्ट ने आरक्षण की 50 प्रतिशत सीमा से आगे की संभावनाएं खोल दी हैं। देश में हड़कंप है। प्रतिभाशाली हताश हैं। आरक्षणवादी राजनीति की बांछें खिल गई हैं। संविधान में अनुसूचित जाति आरक्षण की अस्थाई (10 वर्ष) व्यवस्था है। यह अवधि हर 10 साल बाद बढ़ाई जाती है, लेकिन अधिकतम आरक्षण की कोई सीमा नहीं है। मंडल मामले (1993) में सुप्रीम कोर्ट ने ही आरक्षण का अधिकतम कोटा 50 प्रतिशत तय किया था। इस सप्ताह इसी सर्वोच्च न्यायालय ने इस सीमा से आगे जाने की संभावना के द्वार खोल दिए हैं। तमिलनाडु 69 प्रतिशत, कर्नाटक 70 प्रतिशत और उड़ीसा 65 प्रतिशत आरक्षण दे चुके हैं। शीर्ष न्यायपीठ ने राज्य सरकारों से सीमा से अधिक आरक्षण देने के समर्थन में विश्वसनीय आंकड़े व तथ्य संबंधित राज्यों के पिछड़ा आयोगों के सामने रखने के निर्देश दिए हैं। कोर्ट के ताजा फैसले से मजहबी आरक्षण का जिन्न ताल ठोंक कर बाहर है। कांग्रेस भी सच्चर कमेटी की आड़ में मजहबी आरक्षण की तैयारी में है। संप्रग सरकार भी मजहबी आरक्षण सहित अन्य आरक्षणों की जल्दबाजी में है। आरक्षण ही सबका सहारा है, बाकी आर्थिक राजनीतिक उद्यम पाप हैं। दुनिया के किसी भी देश में भारत जैसा आरक्षण नहीं है, लेकिन यहां आरक्षण का समर्थन प्रगतिशीलता है, सामाजिक न्यायवाद और सेकुलरवाद है। आरक्षण का विरोध पुरोहितवाद तथा सामंतवाद-रूढि़वाद भी है। सुप्रीम कोर्ट ने 50 फीसदी कोटे की सीमा को तोड़ने के अवसर दिए हैं, लेकिन कोई नई सीमा रेखा नहीं खींची। आरक्षण की मांगें अनंत हैं। राजनीतिक दलों की सत्ता भूख भी अनंत है। दुनिया 21वीं सदी में उड़ रही है। भारत महाशक्ति बन जाने को बेताब है। भारत की प्रतिभाएं भी पंख फैलाकर उड़ी हैं, लेकिन मूल समस्याएं यथावत हैं। समस्याएं आर्थिक और सांस्कृतिक हैं। गरीबी उन्मूलन, संस्कृति संव‌र्द्धन व राष्ट्रीय एकता का काम आरक्षण से नहीं होगा। 1953 में पिछड़े वर्गों की खोज के लिए काका कालेलकर आयोग बना। पं. नेहरू आरक्षणवादी नहीं थे। आयोग की कई सिफारिशें असंगत थीं। सो बेमतलब रहीं। गरीबी का कारण जाति या मजहब नहीं होते। व्यक्ति गरीब होते हैं, खास जाति या खास पंथ मजहब वाले सबके सब अमीर या गरीब नहीं होते। काका कालेकर ने भी राष्ट्रपति को लिखा था, समानता वाले समाज की ओर प्रगति में जाति बाधा है। कुछ निश्चित जातियों को पिछड़ा मानने से यह हो सकता है कि हम जाति प्रथा के आधार पर भेदभाव को सदा के लिए बनाए रखें। मंडल आयोग (1980) ने जातीय आरक्षण को विकास का आधार बनाया। वीपी सिंह ने इसकी प्रस्तावना में ठीक लिखा, सभी सरकारी मुलाजिमों की संख्या कुल आबादी का एक या डेढ़ फीसदी है। हमें भ्रम नहीं है कि यह एक फीसदी हिस्सा या उसका कोई भी टुकड़ा 52 फीसदी है। वीपी सिंह की दृष्टि कथित 52 फीसदी पिछड़ी जाति वोट बैंक पर थी। सो मंडल आरक्षण हुआ, बवाल भी हुआ। मंडल सिफारिशों का लक्ष्य राजनीतिक था। अनुसूचित जाति आरक्षण का लक्ष्य वंचितों को ऊपर उठाना था। संविधान सभा के सामने समृद्ध और समतामूलक राष्ट्र के लक्ष्य थे, वर्तमान राजनीतिक तंत्र के सामने सिर्फ अगला चुनाव। डॉ. अंबेडकर राष्ट्रनिर्माता थे। उन्होंने देश की सर्वाधिक श्रमशील दलित आबादी का भी राष्ट्रीय संपदा पर पहला हक नहीं बताया, लेकिन अर्थशास्त्री प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह ने राष्ट्रीय संसाधनों पर मुसलमानों का पहला हक बताया। संविधान निर्माता 10 वर्ष के भीतर ही समतामूलक आरक्षणमुक्त राष्ट्र के स्वप्नद्रष्टा थे। संविधान प्रवर्तन (26 नवंबर 1949) के 61 वर्ष हो गए। आरक्षण मुक्त राष्ट्र की बात तो दूर, आरक्षण ही वोट राजनीति का स्थाई हथियार है। संविधान निर्माता स्थाई आरक्षण के विरोधी थे। उन्होंने संविधान में आरक्षण उपायों की निगरानी की भी व्यवस्था की थी। अनुच्छेद 338 व 338 (क) में क्रमश: अनुसूचित जाति व अनुसूचित जनजाति आयोगों को आरक्षण से होने वाली प्रगति या बाधा के मूल्यांकन का काम सौंपा गया। यही निर्देश पिछड़े वर्ग से जुड़े कृत्यों (अनुच्छेद 340) पर भी लागू है। अनुसूचित जाति, जनजाति के एक छोटे समूह को ही लाभ हुआ है। पिछड़ी जाति आरक्षण से एक खास वर्ग को ही सुविधाएं मिली हैं। आरक्षित वर्र्गो की बहुत बड़ी आबादी भूखी व अभावग्रस्त है। आरक्षण सुविधा पाकर मध्यम या उच्चस्तर पाए लोगों की कोई सूची नहीं बनी। आरक्षण पा चुके अनेक लोग जन्मना जाति का लाभ उठाकर बार-बार आरक्षण ले रहे हैं। आखिरकार दलितों-पिछड़ों के बीच बने नए सवर्ण समूह से वास्तविक दलितों-पिछड़ों को हक दिलाने का काम कब शुरू होगा? आरक्षण राजनीति से अनारक्षित वर्ग समूह में हताशा है। प्रतिभाशाली का विद्रोह दुर्भाग्यपूर्ण होता है। जाति आधारित आरक्षित, लेकिन वास्तव में वंचित समूह में भी घोर निराशा है। नक्सली विद्रोह और हिंसा में संलग्न एक बड़ा हिस्सा इसी समुदाय का है। आरक्षित वर्ग की बहुसंख्यक कतारें प्रतीक्षा में हैं। एक बार आरक्षण पा चुके व्यक्ति के पुत्रों-पौत्रों को अनारक्षित वर्ग में डालने से ही बाकी बचे लोगों को अवसर मिलेंगे। ब्राह्माण, क्षत्रिय, वैश्य सहित अनेक जातियां उच्चस्तरीय मानी गई हैं। आरक्षण पाकर इसी स्तर पर आ गए लोगों को आगे आरक्षण देने का क्या तुक है? सकल राष्ट्रीय आय में प्रति व्यक्ति भागीदारी और वितरण में घोर बेईमानी है। मनमोहन अर्थशास्त्र ने चंद अमीरों की दौलत आसमान पर पहुंचाई, लेकिन 80 करोड़ भूखे हैं। केंद्र बहुराष्ट्रीय कंपनियों के प्रबंधक की भूमिका में है। महंगाई और भुखमरी की मार चंद अमीर छोड़ सब पर है। आरक्षण अन्यायमूलक है, जाति मजबूत करने वाला है, जाति युद्ध बढ़ाने वाला भी है। आरक्षण का ठोस विकल्प खोजना ही राष्ट्रीय अपरिहार्यता है। (लेखक उप्र विधान परिषद के सदस्य हैं) लेखक ह.न.dixit

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