Friday, November 2, 2012

करवाचौथ का भी 'कल्याण'


इस शौक और चलन को क्या कहिये? आज कुंवारी लड़कियां ब्वाय फ्रेंड के लिए व्रत रख रही हैं। सुना है ये साल में किसी को भी, सालों में न जाने कितनों के लिए भी व्रत रख लेती हैं..? मेरी नजर में ये करवाचौथ जैसे तमाम पर्वो की गंगा को मैला करने की निकृष्टतम कोशिश है। इसमें कोई खुश हो सकता है तो वो है बाजार। क्योंकि, उसपर दौलत बरसती है। कोई कुर्बान होता है तो वो है समर्पण और प्रेम, जबकि यही करवाचौथ का मूल है। हमें ताज्जुब होता है ये देखकर कि जो त्योहार कभी बंद कमरों और गुपचुप मनाया जाता था, आज होटलों में मन रहा है। मेरे ख्याल से ये बदलाव महिलाओं के आर्थिक रूप से सशक्त होने से नहीं हुआ। ये चलन तो व्यापार और फैशन से है। बाजार की ताकतें ही अब दुनिया चला रही हैं।
दरअसल, हिंदुस्तान के तमाम पर्वो की तरह बाजारवाद व भूमंडलीकरण ने करवाचौथ का भी 'कल्याण' कर दिया है। बड़ी हैरानी होती है जब 25-30 साल पीछे जाकर सोचता हूं। ..हिंदुस्तान की पढ़ी-लिखी, नौकरीपेशा महिलाएं करवाचौथ मनाने की परंपरा को पिछड़ापन घोषित करती थीं और पुरुष विशेष के लिए पूरे दिन भूखे रहने को 'मरना' कहती थीं। आज की अधिकतर महिलाएं करवाचौथ को मनाकर, सबको बताने-दिखाने में, अपनी पहचान और शान मानती हैं। मेरा मानना है कि प्रेम और भक्ति तो एकांतिक और वैयक्तिक चीजें हैं। ये उछल-कूदकर, नाच-गाकर, दुनियाभर को दिखाने-बताने की चीज नहीं है। आधुनिक दिखने-बनने के इस नशे ने केवल चमक-दमक ही शेष छोड़ी है। पर्व के मूल के भाव को क्षीण किया है। ये आधुनिकता का प्रभाव है कि आज घर में मेहंदी रचाने की तैयारी नहीं होती। न बढि़या मेहंदी रचने वाली महिलाएं ही हैं। अब तो जिस्म के अधिक से अधिक हिस्से में मेहंदी भी किसी और से लगवानी पड़ती है, इंतजार तक करना पड़ता है। तब मेहंदी फबती थी, रचती थी। आज मेहंदी लिपती-पुतती है और अगले दिन धुल-पुंछकर, रासायनिक असर छोड़कर साफ भी हो जाती है।
मैं इस पर्व के साथ जुड़ी भावना का पूरा सम्मान करता हूं। ये भी दूसरे तीज-त्योहारों की तरह श्रेष्ठ और पवित्र है। पर, बाजार की बाजीगरी और संचार माध्यमों की जादूगरी ने इसे जमीन से उठाकर हवा में उड़ना सिखा दिया है। मन के भावों को जिस्म और अभिनय में बदल दिया है। अब तो कुछ पति भी व्रत रखने लगे हैं? प्रदर्शन और प्रचार भी करते हैं। इससे उन्हें क्षणिक सुख भले मिलता हो, जिंदगीभर की खुशी शायद ही मिलती हो।
पहले ये पर्व अनकहे, बिना जताए-दिखाए, अगले करवाचौथ तक अपने पति के प्रति प्रेम और समर्पण का प्रतीक था। पति खुश और पत्नी भी। शायद इसलिए कि पुरुष का अहंकार तुष्ट और स्त्री की आश्वस्ति। आज के जीवन में जो दिखता है, उसे बिकाऊ-कमाऊ बनाने में बाजार की पूरी शक्ति, बुद्धि लगी हुई है। अफसोसनाक आश्चर्य होता है कि पर्व करवाचौथ है और मिट्टी के करवे गायब हैं। ये चांदी-सोने में तब्दील होते जा रहे हैं। दावतें पार्टियां हो रही हैं। अलंकरण और विदेशी गानों पर नाच हो रहा है। हमें डर है कि कहीं दूसरे पर्वो की तरह करवाचौथ भी गरीबों से दूर न हो जाए? ..हम नए चलन का स्वागत करते हैं, लेकिन करवाचौथ को तमाशा बनाने वालों से गलबहियां करना भी अपने बस की बात नहीं..!
जय बाबा बनारस 

5 comments:

  1. सारा किया धरा टीवी पर रात को आने वाले नाटको की नकल करने के कारण हो रहा है।

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  2. त्‍यौहार पवित्रता को बनाए रखने के लिए होते हैं ..
    दिखावटीपना के लिए हो तो बेकार ही हैं ..
    अच्‍छी प्रस्‍तुति ..

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  3. उत्सव का साधन होता यह त्योहार।

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  4. यही हम भी मान रहे हैं कि हर चीज पर बाज़ार का कब्जा हो रहा है और हम सामान हुये जाते हैं।

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