Thursday, December 16, 2010

गंगा-जमुनी संस्कृति: सामुदायिक सद्भाव का जीवन्त उदाहरण-बनारस

बनारस योग, भोग और मोक्ष की नगरी के रुप में हजारों वर्ष से विख्यात है। यहाँ एक ओर जहां मणिकर्णिका घाट पर लोग अपने प्रिय जनों के मृत शरीर का अन्तिम संस्कार करने आते है, वहीं बहुत से लोग आकर काशी वास करते हुए धर्मराज के आने का इन्तजार करते यहाँ हैं। कबीरदास तो यहाँ तक मानते हैं कि काशी में अगर कोई मृत्यु को प्राप्त कर ले तो उसके सभी पाप मिट जाते हैं। स्वर्गलोक में उसके लिए एक स्थान आरक्षित कर दिया जाता है। फिर भगवान का नाम जपने का क्या फल? कबीरदास की भावना को देखे:
जौं कबिरा कासी मरै, रामहि कौन निहौरा।
ज्ञान के पिपासु विद्यार्थी यहाँ शास्रीय अध्ययन करने के लिए आते हैं। बनारस की कला विशेष रु से रेशमी वस्र, पीतल और काष्ठ की कलात्मक चीजें समस्त वि में प्रसिद्ध है। गंगा का स्वरुप एवं आकृति जैसा बनारस में है - अर्ध चन्द्रकार - कहीं भी नहीं है। इस तरह से बनारस धर्मक्षेत्र के साथ ही मोक्षक्षेत्र, ज्ञानक्षेत्र और कलाक्षेत्र को भी अपने-आप में आत्मसात किये हुए है।
बनारसी वस्र कला एक प्राचीन और गौरवशाली परम्परा है। इस गौरव के अनेक आयाम हैं : देवालय की पवित्रता, गंगा का सौन्दर्य, महलों एवं राजदरबारों की भव्यता, लावण्यमयी तरुणी का रुप बनारसी वस्रों से निखर उठती है और श्रेष्ठजनों का व्यक्तित्व बनारसी वस्रों से गौरवान्वित होता है।
कला मानव हृदय की कोमल अनुभूति है। विविध कलाएँ मानव रुचियों एवं सभ्यता को परिस्कृत करती हैं। अपने रहन-सहन, वेष-भूषा, आचरण और वातावरण को अधिकाधिक कलात्मक बनाए रखने के प्रयास में यह मानव समाज सदैव प्रयत्नशील रहा है। इस कसौटी पर बनारसी वस्र ''कला सामंजस्य'' के भव्यतम प्रतीक है। बिनकारी कला के सम्पूर्ण सुरताल और लय इसकी बुनावट में इस तरह गूंथ दिये जाते हैं जिन्हें आखें स्पष्टतः सुनती है। विश्व के किसी भी वस्र उद्योग (कला) के पास कलाकारी का वह नाद और स्वर नहीं जिन्हें आंखे सुन पाती हों।
एक ओर उसकी बेमिसाल कलाकारी इसे जन-अभिरुचियों से जोड़ती है तो दूसरी ओर दस लाख व्यक्तियों के सम्मिलित प्रयास निरन्तर इसे चिरनूतन बनाए रखने में सदैव तत्पर रहते हैं। कहीं नक्शेबन्द (खांकाकार) नई कला सृजन की परिकल्पना में व्यस्त है तो कहीं रंगसाज रंगों की दुनियाँ में। कहीं किसी गाँव या मोहल्ले में बढ़ई लकड़ी को करघे का स्वरुप प्रदान कर रहा है, तो दूसरे गाँव में लोहार अपनी कलाकारी से इसके उपकरणों के निर्माण में जुटा है। अपने कामों में सभी प्रवीण हैं। यदि वस्र बिनकारी कला की कोई भाषा बनाई जा सके तो निश्चय ही उसका व्याकरण बनारसी ही होगा।
बनारसी वस्र कला का हमारे प्राचीन ग्रंथों में काफी उल्लेख मिलता है। वेदों में- खासकर श्रृगवेद तथा यजुर्वेद तथा अन्य ग्रंथों में काशी के वस्रों के प्रचुर उल्लेख मिलते है। इन ग्रंथों में यहाँ निर्मित वस्रों के लिए ''काशी'', ''कासिक'', ''कासीय'', ''काशिक'', ''कौशेय'' तथा ''वाराणसैय्यक'' शब्दों का प्रयोग हुआ है। वेदों में वर्णित हिरण्य वस्र (किमखाब) भी काशी के वस्रों के वर्णन में प्रायः अतिविशिष्ट श्रेणी के वस्र के रुप में किया गया है तथा इनका प्रयोग भी समस्त भारतवर्ष में होता था। वैदिक साहित्य में बिनकारी के बहुत शब्द जैसे ''ओतु'' (बाना), ''तंतु'' (सूत), ''तंत्र'' (ताना), ''बेमन'' (करघा), ''प्राचीनतान'' (आगे खिंचवाना), ''वाय'' (बुनकर), ''मयूख'' (ढ़रकी) आये है।
ई. पू. का महाजनपद युग, शैथू, नागों और नंदयुग की जानकारी जैन सूत्रों, बौद्ध पिटकों और ब्राह्मण सूत्र में काशी के वस्रों के विषय में संक्षिप्त वर्णन है।
पालि साहित्य में भी काशी के बने वस्रों के उल्लेख हैं। इन्हें ''काशीकुत्त्तम'' और कहीं-कहीं ''कासीय'' कहते थे। यहाँ का वस्र इतना प्रसिद्ध था कि महपारिनिर्वाण-सूत्र का टीकाकार विहित कप्पास पर टीका करते हुए कहता है कि भगवान बुद्ध का मृत शरीर बनारसी वस्र से लपेटा गया था और वह इतना महीन और गढ़कर बुना गया था कि तेल तक नहीं सोख सकता था। इसी तरह मज्झिममनिकाय ग्रंथ में बनारसी कपड़े के बाटीक पोत का उल्लेख '' वाराणसैय्यक '' नाम से है। इस ग्रंथ का टीकाकार बनारसी वस्र की प्रशंसा करता है। उनके अनुसार काशी में अच्छी कपास होती थी, वहाँ की कत्त्तिनें और बिनकर होशियार होते थे और वहाँ का नरम पानी (शायद गंगाजल) धुलाई के लिए बहुत अच्छा पड़ता था। ये वस्र ऊपर और नीचे से मुलायम और चिकने होते थे।
महापरिनिब्बाणसूत्त में कही-कहीं काशी के हिरण्य वस्र (किमखाब) का भी उल्लेख आता है। दिव्यावदान ग्रंथ में रेशमी वस्र के लिए ''पट्टंशुक'', ''चीन'', ''कौशेश्'' और ''धौत पट्ट'' शब्दों का व्यवहार हुआ है। धौत प खारे हुए रेशम के वस्रों को कहते हैं। दिव्यावदान में बनारसी वस्रों के लिए ''काशिक वस्र'', ''काशी'' तथा ''काशिकॉसु'' इत्यादि शब्दों का भी प्रयोग हुआ है। काशीक वस्र सूती भी हो सकते थे क्योंकि प्राचीनकाल में बनारस तथा इसके आसपास बहुत अच्छी कपास पैदा होती थीं और यहाँ की कत्तिनें बहुत महीन सूत कातती थी।
जैन ग्रंथ जैवूद्वीप प्रज्ञप्ति में ''जण्णग'' (दरजी) ''पट्टगार'' (रेशमी कपड़े बुनने वाले) तथा ''तंतुवाय'' (बिनकर) को शिल्पियों की श्रेणी में रखा गया है। इसके अतिरिक्त ''कार्यासिक'' (कपास बेचने वाले), सौत्रिक (सूत बेचने वाले) तथा ''दौष्यिक'' (बजाज) का भी समाजिक जीवन में सम्मान-पूर्ण स्थान था। जातक कथाओं से पता लगता है कि बिनकारी में सभी वर्गों के लोग लगे हुए थे। रेशमी-वस्र बुनने वालों को पट्टगार तथा अन्य बिनकारों को तंतुवाय कहा जाता था। कालान्तर में पट्टगार के लिए पटुवा शब्द प्रयोग होने लगा और उसके बाद पटुवा समूह जाति में बदल गया। इसके समर्थन में हमें पट्टा (रेशमी कपड़े बूनने वाला) पट्टंथुक (रेशमी वस्र) जैसे शब्द भी मिलते हैं। बनारसी वस्र कला का एक नाम ''पाटेश्वरी'' जिसका अर्थ है प (बिनकरों) द्वारा उत्पन्न लक्ष्मी। पटुवा जाति के लोग निरन्तर इस व्यवसाय में लगे रहे। ये लोग बिनकारी के अलावा माला एवं जेवरों की गुंथाई तथा कसीदाकारी के काम में भी प्रवीण थे। भारत में मुगलों के आगमन के बाद काफी उथल-पुथल हुई तथा अनेक समूह इस्लाम धर्म में परिवर्तित हो गये। पटुवा जाति का भी एक बड़ा हिस्सा इस्लाम में परिवर्तित हो गया। काशी में अभी भी कुछ पटुवा परिवार हैं।
बनारसी वस्रों के ऊपर सुनहली और रुपहली मनमोहक कलाकारी ने मुगल बादशाहों का मन आखिरकार मोह ही लिया। इन बादशाहों को काशी के वस्रों से अत्यन्त लगाव हो गया था। उन्होंने कला को आगे बढ़ाने में काफी दिलचस्पी भी ली। बादशाहों की विशेष पसंद हो जाने के कारण इसमें मुगल शैली का भी समावेश होने लगा। विशेषकर ईरान के दक्ष कलाकारों ने इसमें विशेष रुचि लेकर यहाँ की कलाकारी में अपनी कला का सामंजस्य किया। मुगल शैली बनारसी बिनकारी की लोकप्रियता का सबसे प्रमुख आधार इसकी कला है। परिवर्तन के अनगिनत दौर से गुजरने के बाद भी बनारस में बिनकरों की संख्या दिनानुदिन बढ़ती ही जा रही है। यह है जीता-जागता एवं चिरन्तन प्रमाण जो इस कला के प्रति कलाकारों एवं उनके पीढ़ी-दर-पीढ़ी के लोगों के स्नेह और समपंण को प्रदर्शित करता है।
बिनकर सामान्यतया बड़े एवं संयुक्त परिवार में रहते हैं। इस कला में लोग बचपन से ही लग जाते हैं। कला की जटिलता इतनी है कि अगर बचपन से ही इसपर ध्यान न दिया जाय तो फिर इसे सीखना दुश्कर हो जाता है। इसमें परिवार के सभी लोग बच्चे-बूढ़े, जवान, औरत और मर्द लगे रहते हैं। सभी लड़के-चाहे वे स्कूल जाते हो या न जाते हों - बिनकारी दस से बारह वर्ष की अवस्था में प्रारंभ कर देते है। पांच से छह वर्ष का प्रशिक्षण (जो घर में ही मिल जाता है) के बाद एक बच्चा एक कुशल बिनकर के आधे के आसपास कमाई कर लेता है और अगले दो से चार वर्ष में वह पूर्ण कारीगर बन जाता है एवं पूरी कमाई करने लगता है। महिलाएं सामान्यतया बिनने का कार्य नहीं करती परन्तु अन्य मदद जैसे धागे को सुलझाना, बोबिंग में डालना, चर्खा पर तैयार करना इत्यादि कर देती है। इसीलिए बिना औरत के बिनाई लगभग असम्भव सा लगता है।
जब एक बच्चा इस कला को सीखना प्रारंभ करता है तो सामान्यतया वह बुटी काढ़ने का या ढ़रकी को फेकने का कार्य करता है। इसीलिए उसे ''बुटी कढ़वा'' या ''ढ़रकी फेकवा'' भी कहा जाता है। जब एक बिनकर अपनी कला में समग्रता के साथ पारंगत हो जाता है तब उसे गीरहस्ता (प्रमुख बिनकर) कहकर पुकारा जाता है।






जरदोजी
इम्ब्रायडरी के काम को जरदोजी कहा जाता है। हालांकि जरदोजी का काम बनारस की अपनी अलग परम्परा नहीं है परन्तु अब लोगों ने बनारसी साड़ी में भी जरदोजी का काम करना प्रारम्भ कर दिया है। बनारस में बनारसी साड़ी तथा वस्र के अलावा अन्य साड़ी, सूट के कपड़े, ड्रेस मैटीरियल्स, पर्दा, कुशन कवर आदि में भी अधिकांशतः मुस्लिम सम्प्रदाय के लोग (कलाकार) लगे हुए हैं। जरदोजी बहुत ही कलात्मक तथा धैर्य का काम है। इसकी बारीकी को समझने के लिए यह जरुरी है कि इसे कम उम्र से ही सीखा जाए। फलतः जरदोजी के पेशे में बच्चे तथा औरतें भी लगे हुए हैं।
चर्खे का सहारा ताग को सही करने तथा बिनने की प्रक्रिया सुगम बनाने के लिए किया जाता है। जब तक तागा (धागा) करघे के पास बिनने के लिए न आ जाए। ताग के अलावा जड़ी के ताग को भी चरखे पर ही ठीक किया जाता है। परम्परागत चर्खा लकड़ी तथा बांस की फड़ी (पट्टी) से बना होता है। हालांकि आजकल साईकिल का पिछला चक्का, चेन, तथा गीयर को भी चरखा बनाकर उससे चरखे का काम लिया जाता है। इसके सम्बन्ध में बिनकरों का कहना है कि एक तो साईकिल वाला मजबूत होता है जिससे यह ज्यादा दिन तक चलता है, दूसरा, चूंकि इसका पहिया चेन तथा गीयर से लगा होता है अतः यह लकड़ी वाले चर्खा की तुलना में ज्यादा गतिशील हो जाता है जिससे कम समय में ज्यादा से ज्यादा ताग लपेटा जाता है।
चर्खा से सम्बन्धित निम्नलिखित प्रमुख उपांग हैं:
(क) माला
माला सामान्यतः रस्सी का बना होता है जो चरखे के पहिये को चलाने के लिए चेन का काम करता है।
(ख) टेकुआ
टेकुआ लोहे का बना होता है। इसकी लम्बाई ६ से ८ इंच के लगभग होती है। टकुए में छुच्छी पहनाकर जड़ी के ताग तथा ताने ताग को सुलझाकर लपेटा जाता है। ताग को जब छुच्छी में लपेट दिया जाता है तब छुच्छी को छुच्छी न (भरे हुए छुच्छी को नरी कहा जाता है) कहकर नरी कहा जाता है।
(ग) पटरा
पटरा लकड़ी के प्लेट से बनता है, जो चर्खे का आधार या बेस होता है। अर्थात चर्खे को पटरे पर ही रखा जाता है। इसका आकार चर्खे के आकार के अनुसार ही घटता बढ़ता रहता है।
(घ) मुठिया
मुठिया को हाथ की मुठ्ठी के सहारे चलाकर चर्खे को घुमाया जाता है। चूंकि इसे मुट्ठी से पकड़कर चलाते हैं इसीलिए इसे मुठिया कहा जाता है। मुठिया लकड़ी तथा बांस से बनाया जाता है। लकड़ी के पट्टे में छेदकर बांस लगाकर इसे बनाया जाता है।
(ड़) नटाई
नटाई बांस का बना होता है। बांस के छःपट्टी (तीन एक तरफ तथा तीन दूसरी तरफ) इसमें लगा होता है। छः पट्टी के बीचों बीच छेद करके उसे बांस के पट्टी के ही छड़ से बांध दिया जाता है। छड़ धुरी का काम करता है। फिर पट्टी के सभी छोड़ को पगिया के धागे (जिसे माला कहा जाता है) से आड़ी तिरछी या वी आकार/पेंच में जोड़ दिया जाता है। उसी पर बाना चढ़ाया जाता है। बाद में उसी बाने को चरखे में लगे टेकुए के नोक पर छुच्छी लगाकर धागे से भरा जाता है। छुच्छी में जब बाना भर दिया जाता है तब उसी को नरी कहा जाता है।
(च) गरनी
गरनी लोहे का छड़नुमा आकृति का बना होता है। एक चरखे में दो गरनी होता है। दोनों गरनी को आधार बनाकर फिर उस पर नटाई का दोनों ऊपरी हिस्सा या छोर गुण्डीनुमा मुड़ा होता है। उसी में नटाई का दोनों सिरा फंसा दिया जाता है जिससे नटाई बिना किसी रुकावट या बाधा के आसानी से नाच (घूम) सके।
(छ) छुच्छी
छुच्छी सनई से बनता है। यह लगभग पांच अंगुल या सवा गीरह का होता है। छुच्छी के दोनों सिरों को रंगीन (अलग-अलग रंग) धागों से बांधा जाता है, जिसे हरैया कहते हैं। सम्भवतः हरैया में एक से अधिक रंगों का प्रयोग इसीलिए किया जाता है ताकि बाने के नरी तथा जड़ी के नरी को आसानी से पहचाना जा सके। इसके अलावे ये बंधे हुए धागे अर्थात हरैया नरी के दोनों सिराओं को टकुए के नोक से नुकसान होने तथा फटने से बचाता है।


परम्परा के दायरे में रहते हुए नवीन प्रयोगः वनारस के बिनकरों की अपनी अनोखी परम्परा
जहां एक ओर हजारों वर्षों से यहां के बिनकरों ने बनारसी बिनकारी के मूल परम्परा को जीवित रखा है, वहीं दूसरी ओर परम्परा के दायरे में रहते हुए बहुत से प्रयोग भी इन्होंने किया है। अपने इन प्रयोग के द्वारा दूसरी जगह के डिजाइन या अन्य चीज को अपनाकर उसे भी बनारसी रंग में रंग दिया है।
उदाहरण को तौर पर सन् १९५० से पहले बनारस में 'ग्यासर वस्रों' की बिनाई नहीं होती थी। किन्तु चीन के अतिक्रमण एवं दमनात्मक रवैये से तंग आकर तिब्बती सरणार्थी भारत के विभिन्न जगहों में आने लगे। उनमें से कुछ लोग बनारस खासकर 'सारनाथ' के आसपास भी आने लगे। इन्हीं तिब्बती सरणार्थियों से यहां के बुनकरों ने 'ग्यासर बुनकरी' को भी अपने जाला पर बिनना शुरु किया। ग्यासार के वस्र पूजा के आसानी, चारदार, थान तथा बौद्ध धर्मावलम्बियों से सम्बन्धित वस्र होते हैं। आजकल इन वस्रों का निर्यात अन्य देशों में भी किया जा रहा है। इस तरह से बनारसी बिनकरों ने एक खत्म होती परम्परा को पुनजीवित कर दिया। हालांकि यह बात भी सही है कि सभी बिनकर ग्यासार वस्रों की बिनाई नहीं करते, परन्तु ग्यासार नाम अब लगभग ४०-४५ वर्षों से बनारस के नाम के साथ जुड़ गया है।
इसके अलावे तनघुई, जामावार, जामरुनी और तो और यहां तक कि बालुचर साड़ियों एवं थानों की भी बिनाई भी आजकल से होने लगा है। हालांकि सारे वस्रों में मोटिफ आज भी बनारस का ही होता है।


साड़ी अथवा बनारसी वस्र के बनने के पूर्व की प्रक्रिया:
आजकल बनारस में रेशम के धागे सर्वाधिक रुप से कर्नाटक राज्य के बंगलौर शहर से आता है। बाजार के दुकानदारों, गीरस्ता (भीहस्ता) तथा बुनकरों से सम्पर्क के दौरान यह पता चला कि बनारसी साड़ी में प्रयुक्त होनेवाले ७५ से ८० प्रतिशत रेशमी धागे कर्नाटक से ही आते हैं। हालांकि कश्मीर, पश्चिम बंगाल (मालदा), बिहार (चाईबासा तथा संताल परगना) इत्यादि जगहों से भी थोड़े बहुत मात्रा में कच्चा रेशमी धागा मंगाया जाता है। इक्के-दुक्के नामी-गरामी गीरस्ता तथा कोठीदार मनमाफिक आर्डर के बेसकीमती तथा नफीसी बनारसी साड़ी बनाने के लिए चीन, जापान, कोरिया इत्यादि देशों से भी रेशम के धागे को मंगाते या आयात करते हैं। चूंकि आयात की प्रक्रिया जटिल है तथा यह काफी मंहगा भी पड़ता है अतः सामान्य गीरस्ता तथा कोठीदार एवं बिनकर इन आयातित रेशमी धागों से साड़ी नहीं बनाता।
पुराने बिनकरों, गीरस्तों तथा कोठीदारों से विस्तृत बातचीत के दौरान यह तथ्य उभर कर हमारे सामने आया कि आज से पचास साल पहले अर्थात आजादी के पूर्व बनारस में अधिकांश रुप से कच्चे रेशमी धागे सर्वाधिक रुप से कश्मीर, चीन, जापान, कोरिया तथा बंगलादेश (ढाका) एवं पश्चिम बंगाल से मंगाये जाते थे।
यहां रेशम में 'मलवरी' रेशम का प्रयोग किया जाता है। मलवरी रेशम २ प्लाई टवीस्टेड यार्न होता है जिसे बनारसी या यों कहें कि बिनकारी की भाषा में 'कतान' कहा जाता है।
कतान एक किलो के लच्छा या गुण्डी में रहता है। इसे साबून और पानी डालकर भट्टी में डि-गमड (गोंद तथा चिपचिपाहट रहित) किया जाता है और अन्ततः ब्लीच किया जाता है। डिगम्ड बहुत ही उच्च ताप पर किया जाता है। डिगमींग तथा ब्लीचिंग की प्रक्रिया पूर्ण हो जाने पर कतान के गुच्छे को रंगरेज को रंगने के लिए दिया जाता है। रेशमी धागों को रंगना भी एक जटिल प्रक्रिया है साथ ही साथ यह महंगी भी है।
डिगमींग का काम सारे लोग नहीं करते। कुछ खास परिवार इस कला में पारंगत होते हैं। डिगमींग के बाद सूत के लच्छे के वजन में लगभग २५० ग्राम तक की कमी आ जाती है। एक किलो का लच्छा घटकर ७५० ग्राम तक हो जाता है।
रंगने की प्रक्रिया भी सभी बिनकर स्वयं नहीं करते हैं। हालांकि ज्यादेतर गीरस्ता स्वयं ही लच्छे को रंगकर फिर बिनकर को बिनने के लिए देते हैं। और अगर बिनकर स्वतंत्र है तो वह फिर स्वयं या किसी डायर से गुच्छे को इच्छित रंग में रंगवा लेता है।
रंगाई की प्रक्रिया समाप्त हो जाने पर गुच्छे को बोबिन बाइन्डर से सुलझाया जाता है (या फिर यों कहें कि बोबिन में लपेटा जाता है।) उसके बाद ताना बनाया जाता है। एक ताने की लम्बाई सामान्यतया २५ मीटर की होती है, जिससे चार साड़ी आसानी से बनाया जा सके। ताना बनाने का काम बिनकर स्वयं करता है, किन्तु अगर ताने में विभिन्न रंगों के धागे का प्रयोग करना हो (किसी खास डिजाइन के लिए), तो पुराने ताने में नए रंगीन ताने को बिनकर स्वयं नहीं करता बल्कि जो इसके विशेषज्ञ होते हैं, उनकी सहायता ली जाती है।
ताना बनाकर फिर उसके एक-एक ताग को सुलझाकर लपेटन में लपेट लिया जाता है। ताना बन जाने पर फिर उसे हथकरघे पर बैठा दिया जाता है। साथ ही साथ इच्छित डिजाईन जिसे कपड़े पर उतारना है, नक्शेबन्द से बनवाया जाता है और फिर नक्शेबन्द के डिजाइन जो ग्राफ पेपर में बना होता है के आधार पर डिजाइन की पट्टी कुट पर जेक्वार्ड कार्ड पंचर द्वारा छेद किया जाता है। अन्त में जक्वार्ड से जाला को ठीक से सजाया जाता है। हरेक ताने को जाले से टांक दिया जाता है। उसके बाद बिनने की प्रक्रिया प्रारम्भ हो जाती है। बनारस की वस्र कला बहुत ही प्राचीन है। यों तो यहां की बिनने की परम्परा बनारस जिले के अलावे मउ, बलिया और यहां तक कि पड़ोसी राज्य बिहार के पटना, फतुआ, औरंगाबाद तक फैल गया है। फिर भी बनारस के प्रमुख जगह जहां बुनकरों की संख्या सर्वाधिक


बनारसी साड़ी तथा वस्रों में व्यवहार किये जाने वाले मोटिफः
यों तो आजकल बनारस में भी बहुत तरह के मोटिफों का प्रचलन चल पड़ा है, परन्तु कुछ प्रमुख परम्परागत मोटिफ जो आज भी अपनी बनारसी पहचान बनाए हुए हैं, का विवरण इस प्रकार है:

१. बूटी
बूटी छोटे-छोटे तस्वीरों की आकृति लिए हुए होता है। इसके अलग-अलग पैटर्न को दो या तीन रंगो के धागे की सहायता से बनाये जाते हैं। यह बनारसी साड़ी के लिए प्रमुख आवश्यक तथा महत्वपूर्ण डिजाइनों में से एक है। इससे साड़ी की जमीन या मुख्य भाग को सुसज्जित किया जाता है। पहले रंग को 'हुनर का रंग ' कहा जाता है। जो सामान्यतया गोल्ड या सिल्वर धागे को एक एक्सट्रा भरनी से बनाया जाता है हालांकि आजकल इसके लिए रेशमी धागों का भी प्रयोग किया जाता है जिसे मीना कहा जाता है जो रेशमी धागे से ही बनता है। सामान्यतया मीने का रंग हुनर के रंग का होने चाहिए।
२. बूटा
जब बूटी के आकृति को बड़ा कर दिया जाता है तो इस बढ़े हुए आकृति को बूटा कहा जाता है। छोटे हरे पेड़-पौधे जिसके साथ छोटी-छोटी पत्तियां तथा फूल लगे हों इसी आकृति को बूटे से उभारा जाता है। यह पेड़ पौधे भी हो सकता है और कुछ फूल भी हो सकता है। गोल्ड, सिल्वर या रेशमी धागे या इनके मिश्रण से बूटा काढ़ा जाता है। रंगों का चयन डिजाइन तथा आवश्यकता के अनुसार किया जाता है। बूटा साड़ी के बॉर्डर, पल्लव तथा आंचल में काढ़ा जाता है जबकि ब्रोकेड के आंगन में इसे काढ़ा जाता है। कभी-कभी साड़ी के किनारे में एक खास कि के बूटे को काढ़ा जाता है, जिसे यहां के लोग अपनी भाषा में कोनिया कहते हैं।
३. कोनिया
जब एक खास कि (आकृति) के बूटे को बनारसी वस्रों के कोने में काढ़ा जाता है तो उसे कोनिया कहते हैं। डिजाइन आकृति को इस तरह से बनाया जाता है जिससे वे कोने के आकार में आसानी से आ सकें तथा बूटे से वस्र और अच्छी तरह से अलंकृत हो सके। जिन वस्रों में स्वर्ण तथा चांदी धागों का प्रयोग किया जाता है उन्हीं में कोनिया को बनाया (काढ़ा) जाता है। सामान्यतया कोनिया काढ़ने के रिए रेशमी धागों का प्रयोग नहीं किया जाता है, क्योंकि रेशमी धागों से शुद्ध फूल पत्तियों का डिजाइन सही ढ़ग से नहीं उभर पाता।
४. बेल
यह एक आरी या धारीदार फूल पत्तियों या ज्यामितीय ढंग से सजाए गए डिजाइन होते हैं। इन्हें क्षैतिज आरे या टेड़े मेड़े तरीके से बताया जाता है, जिससे एक भाग को दूसरे भाग से अलग किया जा सके। कभी-कभी बूटियों को इस तरह से सजाया जाता है कि वे पट्टी का रुप ले लें। भिन्न-भिन्न जगहों पर अलग-अलग तरीके के बेल बनाए जाते हैं।
५. जाल और जंगला
जाल, जैसे नाम से ही स्पष्ट होता है जाल के आकृति लिए हुए होते हैं। जाल एक प्रकार का पैटर्न है, जिसमें बूटी को साड़ी के में सजाया जाता है।
जंगला शब्द संभवत: जंगला से बना है। जंगला डिजाइन प्राकृतिक तत्वों से काफी प्रभावित है। जंगला कतान और ताना का प्लेन वस्र होता है। जिसमें समस्त फूल, पत्ते, जानवर, पक्षी इत्यादि बने होते हैं। जंगला जाल से काफी मिलता जुलता होता है।
६. झालर
बॉर्डर के तुरंत बाद जहां कपड़े का मुख्य भाग जिसे अंगना कहा जाता है कि शुरुआत होती है वहां एक खास डिजाइन वस्र को और अधिक अलंकृत करने के लिए दिया जाता है तो इसे झालर कहा जाता है। सामान्यतया यह बॉर्डर के डिजाइन से रंग तथा मटेरियल में मिलता होता है।


बनारस के लोकप्रिय मोटिफ और उसके पैटर्न
(अ) बूटी:
कैरी बूटी (आम के आकृति की बूटी)लतीफा बूटी (प्रकृति के सौन्दर्य से प्रभावित)असर्फी बूटीरुद्राक्ष बूटीचने के पते की बूटी'गंगा जमुना' या 'सोना-रुपा' बूटीमीनादार बूटी वे पैटर्न जिस पर इन बूटियों को काढ़ा जाता है इस प्रकार है:
जालजंगलाचरखाना, औरपट्टी।
(आ) बूटा
कैरी बूटा'लतीफा' बूटा'शिकारगाह' बूटा'गंगा जमुना' बूटा'पान' बूटा
(इ) कोनिया
शिकारगाह कोनियाकैरी कोनियाकलंगा कोनियापान-पत्ती कोनियां।
(ई) बेल
पटबेलआरी-बेलएकहारी बेलदोहरी बेललहरिया बेलगु बेल।
(उ) जाल और जंगला
फूलदार जालअंगुर की बेल का जालमीनादार जालसीधी पत्ती का जाललट्टरिया पत्ती का जालजरी जाल।
(ऊ) झालर
चिरैतन झालरतीन पत्तियां झालर।
इसके अलावा भी वाराणसी में अनेकों पैटर्न व्यवहार किये जाते हैं। उनमें से कुछ ने तो खास ख्याति प्राप्त किया है जो नीचे है:
डोरिया पैटर्नसलाइदारआधा डोरियालटरिया पैटर्नचरखानादो थप्पाफुलवारीझालरपत्तीदार







नकली जरी का प्रयोगः कला को जीवित रखने की विवशता
पहले शुद्ध सोने तथा चांदी से जरी बनाया जाता था। अतः जब साड़ी पहनने लायक नहीं भी रहती थी तो जलाकर खासी मात्रा में सोना या चांदी इकट्ठा कर लिया जाता था। यकायक १९७७ में चांदी के भाव बहुत बढ़ गया। बढ़े भाव के चांदी से जरी बनाना बड़ा ही महंगा साबित हुआ। इसका नतीजा यह निकला की साड़ी की कीमत काफी बढ़ गयी। बढ़ी हुई कीमत में लोग साड़ी खरीदने से कतराने लगे। ऐसा लगने लगा मानो अब बनारसी बिनकारी लगभग समाप्त ही हो जाएगी।
यह भी एक संयोग ही था कि लगभग उसी समय गुजरात के शहर सूरत में नकली जरी का निर्माण प्रारंभ हो गया था। नकली जरी देखने में बिलकुल असली जरी के जैसी ही थी परन्तु इसकी कीमत असली जड़ी के दसवें हिस्से से भी कम पड़ती थी। कुछ बिनकरों ने इस नकली जरी का प्रयोग किया। प्रयोग सफल रहा और धीरे धीरे असली जरी का स्थान नकली जरी ने ले लिया। साड़ी की मांग पुनः बाजार में जोरो के साथ बढ़ गयी। बुनकर बिरादरी फिर अपनी ढ़रकी और पौसार के आवाज में मस्त होकरबिनकरी के पेशे में तल्लीन हो गये।
वे नकली जरी के कार्य में इतना खो गए कि धीरे-धीरे ऐसा लगने लगा कि असली जरी का नामो-निशान मिट जाएगा। इसी बीच १९८८-१९८९ के लगभग कुछ लोगों (भारतीय रईस) तथा विदेशियों ने बनारसी साड़ी तथा वस्र में असली जरी लगवाने की इच्छा व्यक्त की। दो तीन परिवार बनारस में भी अभी भी बचा था, जिसने फिर से असली चांदी तथा सोने का जरी बनाया। और इस तरह से मांग की पूर्ति की गई।
आजकल कुछ बिनकर पहले दिए गए आॅर्डर के वस्रों तथा साड़ियों में असली जरी लगाते हैं। हालांकि असली जरी का प्रयोग बहुत ही कम होता है, फिर भी परम्परा जीवित है।


सूती तथा रेयन के लागों में जरी का काम और बनारसी वस्र का निर्माण
एक गीरस्ता ने बताया कि मुम्बई की एक जैन महिला बनारस आई। उसे बनारसी साड़ी पहनने का शौक था। लेकिन जैन धर्म में रेशमी वस्र को पहनने की मनाही है, क्योंकि रेशम के धागे बनाने की प्रक्रिया में सामान्यतः कीड़े की जान चली जाती है। महिला ने अपनी समस्या बता दी और कहा कि अगर सूती या रेयन आदि के धागों से बनारसी साड़ी बनायी जाए और उसमें जरी का काम किया जाए तो वह पहन सकती है। मदनपुरा तथा बजरडीहा के बिनकरों ने सूती ताना तथा रेयन के भरनी से साड़ी बनायी तथा उसमें जरी का काम किया। साड़ी पूर्णतः बनारसी ब्रॉकेड जैसा ही बना। जैन महिला काफी प्रसन्न हुई। वह वापस मुम्बई जाकर अन्य जैन महिलाओं में भी इस साड़ी की चर्चा की। आज कुछ बिनकर ऐसी साड़ी भी बना रहे हैं तथा जैनियों में उनके द्वारा बनाए गए वस्रों की अच्छी खासी खपत है। यह एक अनूठा प्रयोग है, जिसपर प्रयोग करने वाले को गर्व है।


रेशमी धागे के बदले रेयन तथा अन्य तागों का प्रयोग
शुद्ध बनारसी ब्रॉकेड या अन्य वस्र रेशम के बढ़े हुए कीमत के कारण मंहगे होते है। ऊपर से लूम तथा फैक्ट्रियों से बिने सिन्थेटिक कपड़े काफी सस्ते पड़ते हैं। खासकर सूरत के मिल मालिकों ने अपने मिलों पर सस्ते तथा भड़किले वस्र बनाकर यहां के बिनकरों के सामने एक समस्या उत्पन्न कर दी। पहले तो ये घबराए फिर उन्होंने भी ताने भरनी में से एक तागा सिन्थेटिक और एक रेशम का प्रयोग किया और साड़ी तथा वस्र बनाना प्रारंभ किया। शुद्ध रेशमी धागों का भी प्रयोग चलता रहा। नए प्रयोग से साड़ी तथा वस्र अपेक्षाकृत काफी सस्ते हो गए। इन वस्रों की मांग भी बाजार में होने लगी। चूंकि ये वस्र सस्ते होते हैं इसलिए सामान्य महिलाएं भी वाराणसी साड़ी को पहनने का सपना साकार कर लेती हैं। बिनने तथा जाला बनाने की परम्परा एवं हुनर में किसी भी प्रकार का परिवर्तन नहीं आया। साड़ी के बॉर्डर तथा अंगना का कन्ट्रास्ट कलर आज भी शुद्ध रेशमी तथा रेयन मिक्सड, सभी में विद्यमान है।


अनावाश्यक धार्मिक हस्तक्षेपः क्या यह सही है?
आज से ४५-५० साल पूर्व तक मुसलमान बिनकर अपने वस्रों में शिकारगाह, हाथी, धोड़े, जानवर, पक्षी यहां तक कि हिन्दू देवी-देवताओं की तस्वीर को भी बिनते थे। जब जैसा मांग आया उसी के हिसाब से वस्र बनाया जाता था। विगत कुछ वर्षों में कट्टरपंथियों ने इन्हें गुमराह करना शुरु कर दिया है। आज अधिकांश बिनकर मानव या जानवर इत्यादि के तस्वीरों का न तो डिजाइन बनाते हैं और न ही बिनते हैं। इनका सीधा जवाब होता है- ईस्लाम में इन्सान तथा अन्य प्राणियों का तस्वीर बनाना या बिनना मनाही है। हालांकि कुछ लोग अभी भी इस तरह के डिजाइन चोरी-छिपे से बना रहे हैं। वे लोग उलेमा तथा धार्मिक नेताओं के डर से इस बात को सबके सामने स्वीकारने तथा बताने से इन्कार करते हैं।
इसका प्रभाव यह पड़ा है कि हिन्दु बिनकरों का महत्व काफी बढ़ गया है। क्योंकि हिन्दु बिनकर को किसी भी प्रकार के डिजाइन बनाने मे आपत्ति नहीं है। हिन्दुओं में भी खासकर पिछड़ी जाति के लोग जैसे चमार, इत्यादि ने बिनकारी के पेशे को करना प्रारंभ किया है। पहले इनके लोग कभी मास्टर विभर या ख्याति प्राप्त बिनकरों के पास सहायक या बूटी कढ़वा का काम किया करते थे। अब इन्होंने भी धीरे धीरे इस कला में अच्छी महारत हासिल कर ली है। इनके कार्य और बिनने की कला में इतनी दक्षता है कि इन्हें निसन्देह मुसलमान बिनकरों के समकक्ष ही रखना श्रेयस्कर होगा। अगर हम यों कहें कि धार्मिक कट्टर-वाद तथा धार्मिक नेताओं के भड़कीले भाषण से प्रभावित होकर जो मुसलमान बिनकरों ने अपने कला में देवी देवता, जानवर, इन्सान इत्यादि को बिनना लगभग छोड़ दिया था, उस अवस्था में अगर हिन्दू बिनकरों ने इस कला कोे नहीं सीखा होता तो इसका (देवी-देवताओं के चित्र, मनुष्य, जानवर इत्यादि) का लगभग लोप ही हो जाता।
वैसे तो हिन्दु बिनकर भी फूल पत्ते, इत्यादि के डिजाइन बिनते हैं परन्तु मुख्यतः गणेश, हिन्दु-देवी-देवताओं, मानवीय आकृति, पशु-पक्षी, नाग, रुद्राक्ष, डमरु आदि के डिजाइन मूलत: विवाह जैसे उत्सवों में पहननेवाले वस्रों यथा साड़ी आदि में बनाते हैं। इनकी मांग भी बजारों में अच्छी खासी है।
एक बात जो और गौर करने लायक है वह यह है कि हिन्दु बिनकरों की आबादी ज्यादातर ग्रामीण क्षेत्रों में है। शहरी क्षेत्र में इनकी संख्या लगभग नहीं के बराबर है। ठीक इसके विपरीत मुसलमान बिनकर ज्यादातर शहरी क्षेत्रों अर्थात बनारस शहर और उसके इर्द-गिर्द के मोहल्लों एवं कॉलोनियों में रहते है। गावों में इनकी संख्या अपेक्षाकृत कम है।
अपने निरीक्षण के दौरान मैंने यह देखा कि बनारस शहर के कुछ खास मुहल्लों में यथा मदनपुरा, अलईपुरा आदि, जगह-जगह पर सेना तथा सी.आर.पी.एफ. के जवान तैनात थे। पूछने पर पता चला कि चूंकि ये इलाका काफी संवेदनशील है अतः यहां इस तरह की व्यवस्था की गई है। संवेदनशील से उनका तात्पर्य हिन्दू मुस्लिम दंगे या बलवे से है। ऐसा क्यों?
समुदाय तो कभी नहीं लड़ना चहता है। बज्जरडीहा के जुम्मन मींया कहतें है ''अरे भाई वनारस के वस्र उद्योग में तो मुसलमान और हिन्दु ताना भरनी की तरह है। यहां हिन्दुओं और मुसलमानों का तानाबाना इस प्रकार बना हुआ है कि एक के बिना दूसरे की कल्पना नहीं की जा सकती।''
लेकिन नेताओं के चाल को न तो सीधे सादे मुसलमान समझ पाते हैं और न ही हिन्दू। बनारस के धार्मिक मुसलमान नेता सरदार कहलाता है। वह अपना निर्देश जारी करता है, जिसका पालन सभी मुसलमानों के लिए अनिवार्य है। इसी तरह के नेताओं ने उन्हें इन्सानी डिजाइन तथा देवी-देवताओं का डिजाइन बनारसी वस्रों में बनाने से मना कर दिया। नहीं मानने वालों को समाज विरोधी तथा इस्लाम विरोधी होने की संज्ञा दी जाती है। ऐसे नेता कभी कभी तो इनको काम बन्द कर देने तक का हुक्म दे डालते हैं। फिर उस दिन सारे मुसलमान बिनकर बिनाई के किसी प्रक्रिया को नहीं करते हैं। इस तरह के हुक्म को 'मुर्री बन्द' कहा जाता है।
एक अन्तहीन प्रश्न यह उठता है कि क्या गंगा-जमुनी संस्कृति को हजारों साल से संजाये हुए कला प्रेमियों के बीच वैमनस्य का बीज बोना और मानवता को दानवता में परिवर्तित करना संस्कृति को कलंकित करने अथवा विनाश करने का साजिश नहीं है? अगर है तो क्या यह सभी का कर्तव्य नहीं बनता कि इस तरह के लोग जो भ्रान्ति फैलाते हैं उनका पर्दाफास किया जाए!


छुट्टी या अवकाश के दिन
वैसे तो सामान्यतः बिनकर सप्ताह के किसी खास दिन साप्ताहिक बन्दी नहीं करते हैं, लेकिन मुसलमान बिनकर शुक्रवार के दिन पूरा काम नहीं करते। सामान्यतः आधे दिन की छुट्टी रखते हैं। उस समय का सदुपयोग मस्जिदों में जाकर नमाज पढ़ने तथा चौक चौराहों पर बातचीत करने या गप्पें लड़ाने के लिए किया जाता है।
इतना हीं नहीं इनकी छुट्टी का एक दिन और भी होता है जिसको थान पूजना या साड़ी पूजना कहते हैं। उस दिन ये कोई कार्य नहीं करते। जब तक एक बार करधे पर लगभग २५ मीटर का ताना चढाया जाता है। एक ताने से सामान्यतः चार साड़ी तौयार होती है। एक पूरे थान को बिनने में लगभग १५-२० दिन लग जाता है। जिस दिन पूरे थान अर्थात चार साड़ी की बिनाई हो जाती है तो फिर उस थान को हटा लिया जाता है। साड़ी के बिनाई की समाप्ति को पूजना कहा जाता है। अगर कोई बिनकर कहे कि आज साड़ी पुज गई तो इसका मतलब है कि उसने चार साड़ी या फिर २४ मीटर का थान बिनकर उठा लिया है। जिस दिन कपड़े पूजे जाते हैं उस दिन फिर बिनकर तथा परिवार के लोग बिनकारी से सम्बन्धित कोई काम नहीं करते। वह दिन उल्लास, छुट्टी तथा मौज मस्ती का दिन होता है।
हिन्दु बिनकर भी पूजने वाले दिन काम नहीं करते। इस तरह से अगर एक बिनकर महीने में दो बार थान उतारता या पूजता है तो इसका मतलब यह है कि वह महीनें में दो दिन की पूरी छुट्टी करता है।
छुट्टी के दिन मौज मस्ती में चौक चौराहे तथा पान की दुकान में गुजरता है। बातचीत या गप्प सप्प का विषय राष्ट्रीय - अन्तरराष्ट्रीय राजनीति, किसी व्यक्ति विशेष को मूर्ख बनाना या फिर स्थानीय राजनीति, कुछ भी हो सकता है। कभी कभी क्रिकेट का खेल और उसमें भारतीय तथा विदेशी खिलाड़ियों का प्रदर्शन भी युवा बिनकरों के बीच बात-चीत तथा विवाद का एक खास विषय बन जाता है। मुसलमान बुनकरों में क्रिकेट का मुद्दा और भी जीवान्त हो जाता है अगर खेल भारत तथा पाकिस्तान के बीच का हो।
इस तरह अपने फील्ड सर्वेक्षण के दौरान मैंने यह पाया कि एक बिनकर औसतन महीने में तीन से चार दिन की छुट्टी करता है। छुट्टी करने की परम्परा ऐसी है कि अगर उससे पूछा जाए कि ''क्या आप छुट्टी करते हैं'' तो वे नकारात्मक जवाब देंगे। परन्तु अगर सही निरीक्षण किया जाए तो यह स्पष्ट हो जाएगा कि हां वे छुट्टी करते हैं।
बिनकारी काम सूर्योदय के बाद किया जाता है तथा सूर्यास्त तक चलता रहता है। बीच-बीच में लोग काम छोड़कर अन्य खासकर घरेलू कार्य जैसे दुकान से राशन-पानी इत्यादि लाना भी करते रहते हैं।


बोरियत से बचने के अनूठे उपाय
लगातर बिनकारी करने की प्रक्रिया से बोरियत न होने लगे इसके लिए आपस में हंसी मजाक तथा परिवार के लोगों से बातचीत भी चलता रहता है। बातचीत करने से इनके कार्य की निपुणता में कोई फर्क नहीं पड़ता। पुराने लोग खासकर मुसलमान बिनकर ढरकी चलाते वक्त अल्ला हो अकबर-रहमाने रहीम या इसी तरह भगवान का नाम ले-लेकर अपने आपको काम में तल्लीन कर लेते हैं। युवा बिनकर आपस में मजाक तथा कई जगहों पर तो रेडियो तथा टेपरिकार्डर से आधुनिक फिल्मी संगीत तथा कव्वाली का भी आनन्द लेते रहते हैं। उनके चेहरे पर हर वक्त बनारसी मस्ती झलकती रहती है। बीच-बीच में पान खाना तथा आजकल विभिन्न ब्राण्ड के गुटके का प्रयोग उनके दैनिक जिन्दगी का हिस्सा है।


बिनने का काम मुख्यतया पुरुषों का है
बिनकारी के कार्य को सामान्यतः पुरुष ही करते हैं। किन्हीं खास कारणवश जैसे अगर किसी महिला का पति मर जाए, बच्चे छोटे हों, महिला बेवा तथा असहाय हो तो फिर बिनने की प्रक्रिया इन खास परिस्थिति में महिलाएं भी करती हैं। इस तरह के उदाहरण लगभग नहीं के बराबर है।
बिनकरों के बच्चों में व्यापत अशिक्षा तथा इन्हें दुर करने के उनके अपने उपाय
बिनकरों में अशिक्षा एक यर्थाथ है। हालांकि आजकल बहुत से लोगों ने अपने बच्चों को स्कूल तथा मदरसों में भेजना प्रारंभ कर दिया है। फिर भी पढ़ने वालों की तुलना में नहीं पढ़ने वाले बच्चों की संख्या बहुत ही अधिक है।
कुछ बिनकर अशिक्षा के लिए बिनकारी की कला या इल्म को दोषी मानते हैं। उनका कहना है कि बच्चे इस इल्म को १० से लेकिन १३-१४ वर्ष की अवस्था में सीखते हैं। अगर इस अवधि में नहीं सीख पाए तो इस कला को सीखना उनके वश में नहीं रहता है। इसका अंजाम यह होता है कि बच्चे पढ़ नहीं पाते।
हालांकि कुछ लोगों का कहना यह भी है कि अगर बिनकरों के बीच रोटेशन स्कूल की व्यवस्था हो जो प्रातः सात बजे से प्रारंभ होकर रात सात बजे तक चले एवं दो घंटे का एक पाली हो जिसमें लोगों को यह सुविधा दी जाए कि वे अपने बच्चे की सुविधा के अनुसार किसी भी पाली में पढ़ने के लिए भेज सकें, तो इस स्थिति में सभी बिनकर के बच्चों के लिए कम से कम बुनियादी शिक्षा की व्यवस्था सहज ढंग से किया जा सकता है। हालांकि कुछ बुनकर ऐसे भी हैं जो सरकारी स्कूल के शिक्षकों के पढ़ाने के ढंग से प्रसन्न नहीं हैं और अपने बच्चों को सरकारी विद्यालयों में न भेजकर प्राइवेट विद्यालयों में भेज रहे हैं। अधिकांश लोग बच्चों को प्राइवेट विद्यालय में भेजना चाहते हैं परन्तु आर्थिक मजबूरी, परिवार का विस्तृत आकार और बहुत सी अन्य आवश्यकताओं की पूर्ति करने के चक्कर में ऐसा करने में असमर्थ हैं।


बिनकरी: एक गौरवशाली परम्परा
बिनकर खासकर मुसलमान बिनकरों को इस बात का अत्याधिक गर्व है कि उनके द्वारा बनाए गए बनारसी वस्रों को पूरे वि में प्रसिद्धि मिली हुई है। लोग गर्व से कहते हैं कि बहुत ही जगहों में खासकर गुजरात के सूरत जैसे शहरों में रईसों एवं सेठों ने बनारसी करघे को चलाना चाहा। लाख कोशिशें कीं फिर भी कामयाबी हासिल नहीं हुई। एक बुजुर्ग बिनकर कहता है ''यह इल्म और यहां की मिट्टी दोनों का चोली दामन का सम्बन्ध है''। न तो बनारस की मिट्टी इस इल्म के रह सकती है और न हीं बिनकारी की प्रक्रिया इस मिट्टी के बगैर फल फूल सकती है।
कुछ लोगों का कहना है कि बिनकारी की कला बहुत ही पाक साफ कला है। पैगम्बर भी अपना कपड़ा भी खुद बिनते थे। और आज आलम यह है कि हमें जुलाहा कहकर छोटा समझा जाता है। ''अलईपुर के एक बुनकर ने यह कहते हुए समझाया फिर आगे कहने लगे'' सत्य तो यह है कि न तो लोगों को और न बिनकरों को जुलाहा शब्द का अर्थ मालूम है और न ही इसका इतिहास। जुलाहा शब्द जुए इलाहा शब्द का विकृत रुप है, जिसका मतलब खुदा या भगवान की खोज करने वाले बन्दे या भक्त से होता है। और तो और महान मुगल बादशाह औरगंजेब भी बिनकारी का कार्य करता था।
कुछ लोगों ने बताया कि ईरान से कुछ मुसलमान बनारस की तरफ आए जो सिल्क तथा कालीन बनाने की कला में पारंगत थे। बिनकारी वाले लोग बनारस में रह गए जबकि कालीन बनानेवाले मिर्जापुर की तरफ चले गए। इन ईरानी बिनकरों ने यहां के लोगों को बिनने की तकनीक में बहुत से नए इल्म का इजाद भी किया। इतना ही नहीं कुछ लोगों ने तो बिनकारी के साथ-साथ समाज सुधारक तथा सच्चे धर्मनिष्ठ मुसलमान की भूमिका भी निभाई।
इसी में से एक नाम मिर्जा अलवी का है। मिर्जा अलवी भी ईरान से बनारस आए थे तथा सच्चे मुसलमान थे। साड़ी बिनने के साथ साथ लोगों के इस्लाम धर्म में फैले अन्धविश्वास, अशिक्षा इत्यादि के प्रति जाग्रत भी करते थे। उन्हीं के नाम पर एक बस्ती अलवीपुरा का नामांकरण किया गया, जिसे आजकल अलईपुरा के नाम से जाना जाता है। अलई में आज भी मिर्जा अलवी का मजार है जहां मुसलमान तथा हिन्दु दोनों ही मन्नत मांगने के लिए जाते हैं।
बनारस के बिनकर इस बात से भी अच्छी तरह अवगत है कि उनके बनाए वस्रों की मांग बाजार में काफी है, और बहुत से बिचौलिए, कोठीदार यहां तक कि गीरस्ता भी माला-माल हो रहे हैं, जबकि उनके मेहनत तथा कलात्मक ज्ञान के बावजूद उन्हें जितना पारिश्रमिक मिलना चाहिए उतना नहीं मिल रहा है। अलइपुरा के ही बिनकर ने बताया कि काशी के बिनकर तो पारस पत्थर हैं। जिसने भी इनको छुआ मालो माल हो गए परन्तु ये अपनी अवस्था पर यथावत खड़े हैं।


मेहनत और अल्लाह में आस्था से बरकत
हालांकि बिनकरों में भी बहुत परिवर्तन आया है। आज बहुत से लोग गीरस्ता हो गए हैं जो पहले कभी बिनकर हुआ करते थे। कुछ लोग तो ऐसे भी हो गए हैं जिनका करोड़ों में कारोबार चलता है। इसका जीता जागता उदाहरण मदनपुरा के हाजी हई साहब हैं। हाजी हई साहब खुले मिजाज के इन्सान हैं तथा अपनी बीती दास्तान को बहुत ही सही ढंग से बताते हैं।
हाजी साहब चार भाई थे। उनके अब्बा अकेले कमाने वाले इन्सान। फिर कर्जों� का बोझ। काफी परेशानी थी और तो और भरपेट खाना भी ढंग से नसीब नहीं हो पाता था। उनकी मां एक कुशल गृहणी थी। अगर किसी दिन रोटी बच जाती थी तो उसे धूप में सूखाकर भविष्य के लिए रख लेती थी। कभी ऐसा भी समय आ जाता था जब धरमें खाने के लिए आटा या चावल बिल्कुल खत्म हो जाता था। उस समय हई साहब की माँ इन सभी भाइयों के लिए बचे हुए सूखी रोटी के छोटे-छोटे टुकड़ा बनाकर फिर उसे गर्म पानी में तीन चार घंटे तक फुलाती थी। जब रोटी फूल जाती थी तो उसमें गुड़ के ढ़ेले डालकर इन्हें खाने के लिए दे देती थी। अम्मा बहुत ही सहज भाव से कहती थी, ''बेटे यह आज के दिन अल्लाह ने तुम सबके लिए भेजा है। इसे मस्ती से खा जाओ। बचा हुआ पानी बाद में पी जाना। वह दूध से भी ज्यादा गुणकारी होगा।'' गरीबी हई साहब के परिवार में चरमोत्कर्ष पर था। और अम्मा चारों भाइयों को महीने में दो-दो सलाई (माचीस) अलग से दो-दो लीटर मिट्टी का तेल, लुंगी, लगाने का तेल इत्यादि राशन के हिसाब से दे दिया करती थी। धीरे-धीरे समय बदलने लगा। हई साहब चारों भाई खुब परिश्रम करके बिनाई का काम करने लगे। इधर अम्मा-अब्बा बूढ़े हो रहे थे। ऊपर से मन में ख्याल संजोए हुए कि हज करने के लिए जाना है। परन्तु पैसा नहीं था। ऐसा लगता था मानो हज का ख्याल सपना बनकर ही रह जाएगा। उसी समय उनके परिवार के एक गुरु जो जबलपुर के मुस्लिम फकीर थे, उनके धर आए। हई साहब के अम्मा-अब्बा ने सारा वृतान्त उन्हें सुनाया। साथ ही साथ यह भी बताया कि उनकी दिली इच्छा है कि हज करने के लिए जाएं, परन्तु पैसा नहीं है। जबलपुरी फकीर ने पूछा 'आपके पास कितने पैसे हैं?'' अम्मा ने बताया ''करीब १२००/'' इस पर फकीर ने बताया ''घबराने की बात नहीं। अगर आपकी दिली इच्छा हज जाने की है, तो अल्लाह आपकी इच्छा को जरुर पूरी करेगा।'' इतना कहने के बाद उसने अम्मा को एक तावीज बनाकर दिया और कहा ''आप इस तावीज को वहां रखना जहां आप पैसा रखते हों। ''इतना ही नहीं उस पैसे को चाहे कितना जरुरी क्यों न आ जाए हाथ मत लगाना। जहां तक हो सके उसमें दो चार पैसे और जोड़ना ही।'' अम्मा एवं अब्बा ने वही किया और एक दिन ऐसा भी आया जब दोनों हज के लिए गए।
धीरे धीरे हई साहब के परिवार की हालत ठीक होने लगी। अब इन्होंने अपना मकान बनाकर तीन-चार करघे अलग से लगा लिए। आमदनी सही होने लगी और हई साहब ने अम्मा-अब्बा को दुबारा हज के लिए भेजा। आज हई साहब बहुत बड़े गीरस्ता हैं। लगभग करोड़ का कारोबार है। खुद भी मीयां बीबी दो-दो बार हज कर आए हैं। हई साहब से हाजी हई साहब बन बैठे हैं। मुम्बई, दिल्ली, कोलकाता, पूने, बंगलौर जैसे शहरों एवं महानगरों के व्यापारियों से इनका सीधा व्यापारिक सम्बन्ध है। इन्होंने एक्सपोर्ट लाइसेन्स भी बना लिया है।
अपने सर्वेक्षण के दौरान मैंने और भी कितने लोगों को देखा जो एक साधारण बिनकर (कारीगर) से एक सम्पन्न गीरस्ता या व्यापारी बन गए।


गंगा-जमुनी संस्कृति: सामुदायिक सद्भाव का जीवन्त उदाहरण
हई साहब कहते हैं यों तो बिनकरी में बिनाई का काम ज्यादातर मुसलमान ही करते हैं। परन्तु इस व्यापार में हिन्दु-मुसलमान, सिक्ख इसाई सारे लोग लगे हुए हैं। कपड़ों के ताने बाने के समान ही इस व्यवसाय में विभिन्न जाति, धर्मावलम्बी, सम्प्रदाय इत्यादि का आपस में ताना बाना हुआ है। सच तो यह है कि बनारस का वस्र व्यवसाय एक रंगी चादर नहीं बहुरंगी चुनरी है जो आपसी भाईचारा, प्रेम, करुणा, सद्भाव सदभावना तथा एकता का एक जीता जागता उदाहरण है। अगर यह नेटवर्क बिगड़ता है तो महजबी एवं फिरका परस्त तथा लालची नेताओं के व्यक्तिगत हित के कारण न कि सामाजिक संरचना के कारण। सट्टे के व्यापारी, कारीगर, इत्यादि सारे हिन्दू ही हैं। फिर बनारस की संस्कृति तो गंगा-जमुनी संस्कृति है, जहां हिन्दु और मुसलमान सदियों से मिलकर रहते आए हैं। हई साहब कहते हैं कि रोजे के समय में सट्टी के बहुत ही सेठ या कोठीदार अपने यहां मुसलमान कारीगरों के लिए 'इफ्तार' का आयोजन करते हैं। इफ्तार में गले लगा जाता है। मुसलमान गीरस्ता भी अपने कारीगरों को दिवाली में कुछ न कुछ भेंट अवश्य देते हैं। होली का रंग हिन्दु मुसलमान मिलकर खेलते हैं इसी तरह ईद तथा बकरीद में दोनों ही कौम के लोग साथ होते हैं। वैमनस्यता आज के राजनीतिज्ञों तथा कट्टर धर्मावलम्बियों एवं धर्म गुरुओं की देन है।
हई साहब का हिन्दुओं के प्रति व्यवहार काफी दोस्ताना है। आज से लगभग २७ साल पहले श्री गणेश प्रसाद जी नामक हिन्दू ने हई साहब के यहां मुनीम के रुप में नौकरी करना प्रारंभ किया। हई साहब गणेश प्रसाद जी को अपना परिवार के सदस्य की तरह मानने लगे। (यह बात गणेश प्रसाद जी ने स्वयं मुझे बताया)। हई साहब के बच्चे भी गणेश प्रसाद जी से काफी ही हिलमिल गए। दोनों का प्यार इतना बढ़ गया कि हई साहब के बच्चे गणेश प्रसाद जी को 'मामाजी' कहकर सम्बोधित करने लगे। सम्बन्धों में निकटता का यह अनूठा उदाहरण था।
गणेश जी कहते हैं : ''एक बार हई साहब तथा उनकी पत्नी अपने लड़के को लेकर हज के लिए जाने लगे। जाने से पहले उन्होंने चाबी अपने भाइयों को न देकर गणेश प्रसाद जी को दिया। जब वापस आए तो गणेश प्रसाद जी से हिसाब तक नहीं लिया। जब हई साहब के बड़े लड़के की शादी हुई तो उसका सारा इन्तजाम एवं खरीददारी गणेश प्रसाद जी ने ही किया।
धीरे धीरे गणेश प्रसाद जी ने बिनकरी के सारे गुण को सीख लिया। आर्थिक स्थिति भी थोड़ी अच्छी हो गई। फिर उन्होंने स्वयं गीरस्ता करने की सोची। एक दिन गणेश प्रसाद जी ने अपना प्रस्ताव हई साहब के सामने रखा। हई साहब ने भी गणेश प्रसाद जी को उत्साहित किया। आज गणेश प्रसाद जी भी एक कुशल गीरस्ता हैं। दोनों के सम्बन्ध आज भी काफी मधुर है। जब गणेश प्रसाद जी ने अपना काम शुरु कर दिया तो उसके तीन चार साल के बाद हई साहब फिर हज के लिए अपने पत्नी के साथ जाने लगे। जाने से पहले हई साहब को गणेश प्रसाद जी ने अपने घर पर निमंत्रण देकर खाने के लिए बुलाया। हई साहब आए और बड़े ही चाव से अपने मनपसन्द के भोजन गणेश प्रसाद जी की पत्नी के हाथों बनवाकर खाए। इसी तरह से हई साहब के दुसरे बेटे की शादी के समय हाजीन स्वयं चलकर गणेश जी के घर आयी तथा कहा 'गणेश तुम्हें अपने भांजे (हई साहब के दूसरे लड़के) की शादी की सारी तैयारी करनी है'' गणेश जी ने भी मामा का रोल बखूबी अदा किया।


'बनारस के बिनकर और बनारसी मस्ती'
बनारस के बिनकर चाहे मुसलमान हों या हिन्दू बनारसी मस्ती मानो उनके जीवन का एक अहम हिस्सा है। उन्हें इस बात का गर्व है कि बनारसी साड़ी अपने आप मे एक अनूठी साड़ी है, और यह बनारस के अलावा वि के किसी अन्य कोने या हिस्से में नहीं बनायी जा सकती। लोग काफी ही मजाकिया तथा मस्त होते हैं। जैसे ही पूछेंगें आपको जवाब मिलेगा बनारस में सभी भोले हैं। एक अलमस्ती, और जीने का निराला अंदाज है उनका जिसे केवल देखा और महसूस किया जा सकता है। शब्दों और आकारों में इसका वर्णन अगर असंभव नहीं तो दुरह अवश्य है।
इस पर अपनी मिट्टी से इतना प्यार कि बनारस के बाहर जाना इन्हें गंवारा नहीं। अगर लाचारी अवस्था में जाना ही पड़े तो फिर बनारस आने के बहाने ये बनाने लगते हैं। मदनपुरा के ही एक महोदय ने इस सम्बन्ध में एक बहुत ही दिलचस्प वाकिया सुनाया। एक बार एक गुजरात के बिनकर सूरत में एक सेठ को यह सूझा कि क्यों न बनारसी कपड़े का उत्पादन सूरत में ही किया जाए। वह इस सपने को संजोए बनारस आया। यहां आकर यहां के बिनकरों से बातचीत शुरु किया। एक बिनकर सूरत जाकर बनारसी करघे की तैयारी करने के लिए राजी हो गया। फिर क्या था सेठ ने सारा समान खरीदा और बिनकर को लेकर सूरत चला गया। जब बिनकर ने सारे करघे को ठीक कर लिया फिर उसे बनारस की याद सताने लगी। उसने सेठ से कहा ''सेठ एक चीज तो मैं बनारस में ही भूल आया?'' सेठ ने कहा क्या? फिर उसने जवाब दिया, नौलक्खा। और वह आगे कहने लगा - नौलक्खा बनारस के आलवे और कहीं मिल भी नहीं सकता है। अतः बनारस जाना जरुरी है।'' इतना कहकर वह बनारस आया और यहां - पांच-सात दिन रहा। जाते समय कुम्हार से चार नौलक्खा लेकर उसको अच्छी तरह से पैकेट बनाकर सूरत ले गया। जब सेठ ने नौलक्खा को देखा तो कहने लगा- यह काम तो ईंटे, पत्थर या किसी अन्य चीज से भी हो सकता था। परन्तु बिनकर ने कहा, ''नहीं सेठ, जाला के काम को नौलक्खे से ही बनाया जा सकता है। नौलक्खा बनारस के अलावा किसी अन्य जगह में बनता ही नहीं।'' नौलक्खा बन गया तो फिर करघे को चालू करने की बात आई। बिनकर को फिर बनारस की याद आने लगी। उसने सेठ से कहा ''सेठ मैं तो पुखनारी' बनारस में ही भूल आया। और पुखनारी बनारस में ही मिल सकता है। बिना पुखनारी के ढ़रकी नहीं चल सकती और बिना ढ़रकी के बिनाई असंभव है।'' इस तरह से वह फिर बनारस आया। पुखनारी किसी भी पक्षी खासकर कबूतर के पर से बनाया जाता है। पुखनारी को ढ़रकी में डालकर नरी को संतुलन में रखा जाता है। उसने पुखनारी को एक अच्छे से मखमली कपड़े में लपेट लिया और वापस सूरत सेठ के पास गया।
इसी तरी से उनकी मस्ती का अपना ही एक आलम होता है। एक अनोखी घटना अलईपुरा में एक कारीगर ने मुझे सुनायी। नौलक्खा मिट्टी को पकाकर बनाया जाता है। इसे कुम्हार बनाते हैं। एक बार एक बिनकर के घर चोर घुस आया। बिनकर उसे देख लिया और अपनी पत्नी को चुपचाप बता दिया। फिर चोर को सुनाकर अपने पत्नी से कहा ''नौलक्खा सही जगह पर तो रखी है।'' पत्नी ने कहा ""हां''। बिनकर ने कहा ""कहां रखी हो? आजकल चोर वगैरह ज्यादा आने लगे हैं?'' पत्नी ने कहा ''घर के बाईं कोने के सीक पर कपड़े में लपेट कर रखी हूँ।'' फिर क्या था। चोर ने आव देखा न तीव नौलक्खा उठाकर चल दिया।'' इस तरह की कहानी बनारस में बहुत से बिनकर कहकर कहकहों से लोगों को मस्त कर देता है।
मस्ती बनारसी परम्परा तथा यहां की मिट्टी का एक अभिन्न हिस्सा है। चाहे हिन्दू हो या मुसलमान कोई भी मन से इस बनारस की धरती को छोड़कर अन्यत्र जाना नही चहाता। जहां एक ओर हिन्दू यह कह कर :
चना-चबेना गंगजल जौं पुखै करतारतबहुं न काशी छोड़िए विश्वनाथ दरबार।
आपको काशी न छोड़ने का दलील देंगे, और यह भी कहेंगे, ''अगर हमने काशी छोड़ दिया तो बनारसी ठंढई तथा भांग कहां मिलेगा?'' फिर 'लौंगलता'' मिठाई भी अन्यत्र कहां उपलब्ध है, इस बनारस नगरी को छोड़कर! वहीं मुसलमान बुनकर को अपनी ढ़रकी और करघे से प्यार है। गंगा-जमुनी संस्कृति उनके जेहन में रचा बसा है। ठीक है मुसलमान हैं, इस्लाम धर्म को मानते हैं। परन्तु हिन्दुओं के तर्ज पर अगस्त महीने के पहले शुक्रवार को 'अगहनी जुम्मा' मानते हैं। उस दिन कोई भी बिनकर बिनाई का काम नहीं करता। घर में सेवइयां, मीठे चावल, पूरी इत्यादि बनायी जाती है। मस्जिद में जाकर नमाज पढ़ा जाता है। अगर नए वस्र की व्यवस्था न भी हो पाए तो पुराने वस्रों को ही अच्छी तरह धोया जाता है, इस्री किया जाता है। साफ सुथरे और धुले वस्र पहनकर फिर इत्र लगाया जाता है। बन्धु-बांधवों से मिला जाता है। कुछ लोग तो गंगा के विभिन्न घाटों में जाकर गंगा नदी का लुत्फ भी उठाते हैं तो कुछ लोग नाव में बैठकर विभिन्न घाटों की सैर। निश्चिन्तता इतना कि अपने सारी समस्याओं को भूलकर इतने मस्त हो जाते हैं मानो पूरे दिन को ही अपने अन्दर चुरा लेना चाहते हों। पूरा फक्करपन, और मस्ती का एहसास सहज ही देखा जा सकता है। एक अल्लहड़पन जो खासे बनारसी अंदाज का होता है उस दिन देखने को मिलता है।


बिनकरी पेशा और उसका स्वास्थ्य पर प्रभाव
बहुत से लोगों ने अपने लेख, अध्ययन, रिपोर्ट तथा किताबों में इस बात का विस्तार से वर्णन किया है कि बिनकारी पेशे का बिनकरों के स्वास्थ्य पर बहुत ही बुरा प्रभाव पड़ता है। दमे की बिमारी, यक्षमा, कमर दर्द, बदन दर्द इत्यादि बिमारियों का जिक्र भी इन लोगों ने विस्तारपूर्वक किया है। इसी तथ्य को जानने के लिए हमने भी बिनकारी के पेशे में लगे लोगों से इस सम्बन्ध में विस्तारपूर्वक बातचीत की।
लोगों ने मुझे बिल्कुल विपरीत बात बताई। उनके अनुसार बिनकारी पेशे से किसी प्रकार की बिमारी होने की संभावना नहीं है। उल्टे इससे फायदे ही हैं। बिनकारी एक प्रकार का व्यायाम है, जिसमें शरीर के प्रत्येक अंग पैर से लेकर मस्तिष्क तक क्रियाशील रहता है। लोगों ने कहा कि यह तो शरीर को चुस्त तथा दुरुस्त बनाए रखता है। हालांकि कुछ लोगों ने यह स्वीकार किया कि बुढ़ापा आने पर बदन दर्द तथा जोड़ों का दर्द जैसी समस्याओं का सामना इन्हें करना पड़ता है। कुछ लोगों ने इस बात का भी प्रतिकार किया और बताया कि जोड़ों का दर्द तथा बदन दर्द एक ऐसी समस्या है जो लगभग सभी लोगों को बुढ़ापे में परेशान करती हैं, चाहे वे बिनकारी के पेशे में हों या अन्य किसी भी पेशे में क्यों न हो। इसका सम्बन्ध किसी भी तरह से बिनकारी के पेशे से जोड़ना सही नहीं है।


बाल मजदूरी: एक भ्रान्ति
मैंने अपने सर्वेक्षण के दौरान अलईपुरा, बुनकर कॉलोनी, मदनपुरा, रामनगर, बजरडीहा इत्यादि जगहों में जगह-जगह पर बाल-मजदूरी के खिलाफ पोस्टर लगे देखे। सर्वेक्षण करने के पहले मन में एक प्रश्न आया - क्या यहां के लोग इतने हृदयहीन हैं कि अपने बच्चों के भविष्य की चिन्ता किए बगैर उन्हें बाल-मजदूरी में झोंक देते हैं और उनसे उनका अनमोल धरोहर जो जीवन में केवल एक बार आता है, बचपन छीन लेते हैं? और अगर यह सत्य है तो इसका कारण क्या है? इसका समाधान क्या हो सकता है?
इन्हीं सवालों में अपने-आपको उलझाए हुए मैंने इस चीज अर्थात 'बालश्रम' का अवलोकन तथा लोगों एवं खासकर बच्चों से प्रश्न करना प्रारंभ किया। हमारा अनुभव यहां भी कुछ अलग तरह का ही रहा। बिनकारी एक व्यक्ति विशेष का नौकरी या पेशा नहीं है। न तो इसमें नौकरी की तरह ८ घंटे काम करके घर वापस जाने का प्रवाधान है। यह पारिवारिक तथा परंपरागत पेशा है। जिस तरह से अन्य घरेलू काम के लिए परिवार के सदस्यों के बीच श्रम विभाजन अनकही, और अलिखित किन्तु व्याप्त प्रक्रिया है। ठीक उसी तरह से बिनकारी की प्रक्रिया में भी परिवार के सभी लोगों की अपनी अपनी भूमिका होती है। इस भूमिका का निर्वाह बूढ़े, बच्चे, स्री पुरुष सभी करते हैं। जहां चर्खे बोबिन तथा भरने की प्रक्रिया परिवार की औरतें करती हैं। वहीं सहायक का काम बच्चे करते हैं। सामान्यतया बूटी काढ़ना, टूटे धागे को जोड़ना, उलझाए धागे (तागे) को ठीक करना, मांड़ी के समय में साड़ी या थान के एक हिस्से को पकड़े रहना, कटवर्क कपड़े के (कटवर्क का काम) करना यहां निसन्देह रुप से बच्चे करते हैं। परन्तु यह काम ऐसा नहीं होता जिसे वे हमेशा करते हैं। एक बच्चा औसतन तीन-चार घंटे से ज्यादा काम शायद ही करता है। फिर जैसा कि हमने ऊपर लिखा है - बिनकारी का काम एक इतना जटिल प्रक्रिया है, जिसे उम्रदराज लोग आसानी से नहीं सीख सकते। इसके लिए जरुरी है कि इसे कम उम्र से ही सीखा जाए। लोगों का यह भी कहना है कि अगर बच्चे को पढ़ाकर १०-१२ वीं पास भी करा दिया जाए तो क्या कोई उसे नौकरी देने की गारन्टी दे सकता है? नहीं। कभी नहीं। बल्कि पढ़ लिखकर वह न तो नौकरी करेगा और न ही बिनकारी का काम कर पाएगा। बिनकारी एक ऐसी कला है जिसको सीख जाने पर वह बच्चा बड़ा होकर आसानी से घर बैठे परिवार के लोगों के बीच रहकर परिवार की भी देखभाल करेगा तथा जीविका के लिए उचित धन का भी अर्जन आसानी से कर लेगा। अतः यह कहा जा सकता है कि बिनकारी की शिक्षा इसे एक प्रकार से नौकरी या पैसे अर्जन करने की गारण्टी देता है।
बच्चों के व्यवहार से भी कुछ ऐसा प्रतीत नहीं होता जिससे उन्हें शोषित या 'बालश्रम' से व्यथित या परेशान कहा जाए। शिक्षा की कमी एक यर्थाथ है, जिसका समाधान आवश्यक है। समाधान भी लोगों ने सुझाए हैं, जिसका वर्णन ऊपर किया जा चुका है। बच्चे खेलते रहतें बीच-बीच में काम भी करते हैं। आजकल बहुत से बच्चे ऐसे भी हैं जो विद्यालय जाते हैं। विद्यालय जाने से पूर्व तथा आने के बाद कुछ समय अपने पिता के काम में हाथ जुटाने में लगा देते हैं। काम ऐसा है, जिसमें न अधिक श्रम करना पड़ता है और न ही मानसिक उलझन। तो क्या फिर इसे 'बालश्रम' या 'बाल-मजदूरी' का नाम देना उचित है?


बिनकरी पेशा और आर्थिक आमदनी
हालांकि बुनकरों का आर्थिक शोषण गीरस्ता, पट्टीदार, कोठीदार जैसे लोगों से होता है। फिर भी अगर एक बिनकर औसतन एक दिन में आठ से दस घंटे तक कार्य करे तो वह आसानी से महीने के अंत में ५००० से लेकर 1५००० रुपये (कपड़े की गुणवता तथा बुनाई की कलात्मकता) तक अर्जन कर लेता है। यह बात अलग है कि बढ़ती महंगाई तथा प्रतिस्पर्धा के दौर में उसे यह कमाई थोड़ी नजर आती है।
फिर यह धंधा ऐसा है जिसमें अधिकांश बिनकर अपने घर पर रह कर ही बिनाई करता है। न तो उसे अपने परिवार वालों से अलग रहना पड़ता है। हालांकि कुछ युवा बिनकरों का कहना है कि उनकी आमदनी अगर 1५००० रुपये प्रतिमाह हो जाए तो उनकी समस्याओं का समाधान हो सकता है। बहुत से लोगों को करघा उनके गीरस्तों की ओर से मिला हुआ है। परन्तु शर्त यह है कि वे गीरस्ते के लिए ही कपड़े बुनेंगे। बाहर बाजार में भी थोड़ मोल भाव तो करना पड़ता है, परन्तु बनाए गए वस्र आसानी से बिक जाते हैं। अतः यह धंधा कलात्मक तो है ही अन्य हस्त शिल्पों की तुलना में आर्थिक रुप से लाभकारी भी है।


बुजुर्ग बिनकर अपने परिवार तथा समाज के धरोहर है
इस पेशे (कला) की खाशियत यह भी है कि अधिक उम्र या बृद्ध हो जाने पर लोग परिवार के लिए वरदान साबित होते हैं। उन्हें एक परामर्शदाता के रुप में परिवार तथा समाज में देखा जाता है। उदाहरण के लिए अलईपुरा के एक बिनकर जब बूढ़े हो गए तो उनके चार लड़कों ने उन्हें बिनने के काम से स्वतन्त्र कर दिया। अब वे अपने बच्चों के लिए कच्चा माल लाते हैं अगर कारखाने (करघे के कारखाने), तागों के चुनाव इतयादि में कोई समस्या आ जाए तो उसका समाधान करते हैं। बिनकारी के गुणवत्ता से अपने बच्चों को अवगत कराते हैं। इतना ही नहीं बच्चों द्वारा बिने हुए बनारसी वस्र को सट्टी में जाकर उसे उचित कीमत में मोल भाव करके बेचते हैं। इन्हें सामाजिक क्रिया-कलापों का पूर्ण ज्ञान है, अतः समाज के लोगों को भी सही दिशा निर्देशन करना, परम्परा से सम्बन्धित जानकारी देना भी उनका काम है।
यह उदाहरण अकेला नहीं है। बहुत से नकशबन्द जो काफी बूढ़े हो गए हैं, अब खुद तो डिजाइन नहीं बनाते परन्तु अपने पास २५-५० बच्चों को भविष्य के अच्छे नक्शबन्द के रुप में तैयार कर रहे हैं, और सच्चे उस्ताद की भूमिका निभा रहे हैं।

6 comments:

  1. जौं कबिरा कासी मरै, रामहि कौन निहौरा।

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  2. are baba ji hamari to janam hi wohi par huya hai.

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  3. बनारस की वस्त्र-कला पर इतने विस्तार से लिखने के लिए आपने कितनी सूक्ष्मता से इतनी जानकारी इकट्ठी की होगी इसका अनुमान लगाना मुश्किल है !
    बेहद जानकारीपरक लेख !
    -ज्ञानचंद मर्मज्ञ

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  4. कमाल के मेहनती हो यार ! आज का कार्य तो शोध क्षात्रों के काम का है ....यह पन्ने समय के साथ लोगों के बड़े काम आयेंगे अभी शायद लोग पुरविया को पहचान नहीं पाए हैं !

    एक सलाह और( मुफ्त सलाह बांटने वालों की बिरादरी वाला ही मान लेना ) : लाल रंग, आँखों में चुभने के साथ साथ ऐसे गंभीर लेखन के लिए बचकाना लगता है !
    हार्दिक शुभकामनायें !

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  5. Kaushal Mishraji,
    Apne mere dwara likhe gaye lekh ko cut paste karke apne blog par dal diya wo bhi apne naam se. Aap sanskar se buddhijivi lagte hain parnatu is tarah ka ghinauna harkat kaise kar lete hain. Maine 1997-1998 me UNESCO aur Government of India ke liye Banaras ke Bunkar, Tamrkar aur Kast ke khilaune banane walon par lagat 44 din rahkar saghan kary kiya tha. Mera yeh report 2000 isvi ke aspass IGNCA ke webpage per hai.
    Apse agrah hai ki aap turat is baat ki ghoshna karen ki yeh lekh apka nahi hai anytha aap cybercrime ke dayare me aa sakte hain.

    Apka hi
    Dr. Kailash Kumar Mishra
    Formerly with IGNCA as RESEARCH OFFICER,
    NOW Chairman of RIRKCLRC, Dwarka, New Delhi - 110078
    Email: kailashkmishra@gmail.com
    M.09868963743


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  6. Main apko yeh bhi bata doon ki yeh lekh IGNCA ke website me mere nam se is heading ke saath 2003 me published hai:
    बनारस की वस्र कला

    कला और स्थानीय तकनीक का अदःभुत संगम
    डा. कैलाश कुमार मिश्र

    link: http://www.ignca.nic.in/coilnet/kv_0010.htm
    Copyright K. K. Mishra © 2003


    Dr. Kailash Kumar Mishra

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