बनारस एक ऐसा नगर है, जहाँ जाकर मनुष्य अद्भुत आध्यात्मिक भावना से परिपूरित हो जाता है और बनारस की सड़कों तथा गलियों में पैदल घूमने-विचरने में असीम आनंद का अनुभव करता है। एक समय की बात है कि उर्दू के प्रसिद्ध शायर अकबर इलाहाबादी एक बार बनारस गये और अपने एक मुसलमान मित्र के यहाँ ठहरे। उनके मित्र बनारस के उन मुसलमानों में थे, जो विशुद्ध शाकाहारी थे। यहां तक कि प्याज और लहसुन भी उनके घर में नहीं आता था। ऐसे मुसलमान काफी संख्या में आज भी बनारस में हैं, जिनके यहां विशुद्ध शाकाहारी भोजन ही बनता है। अधिकांशत ये शिया हैं।
अकबर इलाहाबादी को बनारस इतना ज्यादा पसंद आया कि वह काफी दिनों तक वहां रुके रहे। एक दिन हिन्दी के कुछ साहित्यकार मित्र उनसे मिलने आये। काफी देर तक साहित्य चर्चा होती रही। उनमें से एक सज्जन ने पूछा कि जनाब को बनारस कैसा लगा? इसके जवाब में अकबर ने एक पुस्तक उठायी और उसके भीतर से एक पर्ची निकाल कर उनके हाथ में दे दी। इस पर उनका लिखा हुआ एक शेर था, जो इस प्रकार है -
शहर एक बनारस है।जिसका हर खाक पारस है।।
उस शेर को प्रशनकर्ता ने जोर से पढ़कर सुनाया, जिसके सुनते ही हिन्दू-मुसलमान साहित्यकारों की वाह-वाह की ध्वनि गूंज उठी। बनारस की भूमि में एक खास आकर्षण है, जिसने आज से सदियों पहले ईरान से आये हुए, हाफिज आदि फारसी के उच्चकोटि के शायरों तक को प्रभावित किया था।
वैसे तो बनारस आज भी बहुत-सी चीजों के लिए मशहूर है, पर जिस चीज के लिए वह सारे उत्तर भारत में प्रसिद्ध है, वह है बनारस का लंगड़ा आम, जिसे देखते ही लोगों के मुंह में पानी आ जाता है और वे उसे किसी भी कीमत पर खरीदने को तैयार हो जाते हैं। बनारस के लंगड़ा आम की जन्म-कथा भी रोचक है।
लगभग ढाई सौ वर्ष पहले की घटना है। कहते हैं, बनारस के एक छोटे-से शिव-मंदिर में, जिसमें लगभग एक एकड़ जमीन थी, जो चाहर दीवारियों से घिरी हुई थी, एक साधु आया और मंदिर के पुजारी से वहां कुछ दिन ठहरने की आज्ञा माँगी। पुजारी ने कहा, ``मंदिर परिसर में कई कक्ष हैं, किसी में भी ठहर जाएँ।'' साधु ने एक कमरे में धूनी रमा दी।
साधु के पास आम के दो छोटे-छोटे पौधे थे, जो उसने मंदिर के पीछे अपने हाथों से रोप दिये। सुबह उठते ही वह सर्वप्रथम उनको पानी दिया करता, जैसा कि कण्व त्र+षि के आश्रम में रहते हुए कालिदास की शकुंतला किया करती थी। साधु ने बड़े मनोयोग के साथ उन पौधों की देखरेख की। वह चार साल तक वहां ठहरा। इन चार बरसों में पेड़ काफी बड़े हो गये। चौथे वर्ष आम की मंजरियाँ भी निकल आयीं, जिन्हें तोड़कर उस साधु ने भगवान शंकर पर चढ़ायीं। फिर वह पुजारी से बोला, ``मेरा काम पूरा हो गया। मैं तो रमता जोगी हूं। कल सुबह ही बनारस छोड़ दूंगा। तुम इन पौधों की देखरेख करना और इनमें फल लगें, तो उन्हें कई भागों में काटकर भगवान शंकर पर चढ़ा देना, फिर प्रसाद के रूप में भक्तों में बांट देना, लेकिन भूलकर भी समूचा आम किसी को मत देना। किसी को न तो वृक्ष की कलम लगाने देना और न ही गुठली देना। गुठलियों को जला डालना, वरना लोग उसे रोपकर पौधे बना लेंगे।'' और वह साधु बनारस से चला गया।
मंदिर के पुजारी ने बड़े चाव से उन पौधों की देखरेख की। कुछ समय पश्चात पौधे पूरे वृक्ष बन गये। हर साल उनमें काफी फल लगने लगे। पुजारी ने वैसा ही किया, जैसा कि साधु ने कहा था। जिन लोगों ने उस आम को प्रसाद के रूप में खाया, वे लोग उस आम के स्वाद के दीवाने हो गये। लोगों ने बार-बार पुजारी से पूरा आम देने की याचना की, ताकि उसकी गुठली लाकर वे उसका पौधा बना सकें, पर पुजारी ने ऐसा करने से साफ इनकार कर दिया।
इस आम की चर्चा काशी नरेश के कानों तक पहुँची और वह एक दिन स्वयं वृक्षों को देखने राम-नगर से मंदिर में आ पहुंचे। उन्होंने श्रद्धापूर्वक भगवान शिव की पूजा की और वृक्षों का निरीक्षण किया। फिर पुजारी के समक्ष यह प्रस्ताव रखा कि इनकी कलमें लगाने की अनुमति प्रधान-माली को दे दें। पुजारी ने कहा, ``आपकी आज्ञा को मैं भला कैसे टाल सकता हूँ। मैं आज ही सांध्य-पूजा के समय शंकरजी से प्रार्थना करूंगा और उनका संकेत पाकर स्वयं कल महल में आकर सरकार का दर्शन करूंगा और मंदिर का प्रसाद भी लेता आऊँगा।''
इसी रात भगवान शंकर ने स्वप्न दिया, ``काशी नरेश के अनुरोध को मेरी आज्ञा मानकर वृक्षों में कलम लगवाने दें। जितनी भी कलमें वह चाहें, लगवा लें। तुम इसमें रुकावट मत डालना। वे काशीराज हैं और एक प्रकार से इस नगर में हमारे प्रतिनिधि स्वरूप हैं।'' दूसरे दिन प्रातकाल की पूजा समाप्त कर प्रसाद रूप में आम के टोकरे लेकर पुजारी काशी नरेश के पास पहुँचा। राजा ने प्रसाद को तत्काल ग्रहण किया और उसमें एक अलौकिक स्वाद पाया।
काशी नरेश के प्रधान-माली ने जाकर आम के वृक्षों में कई कलमें लगायीं, जिनमें वर्षाकाल के बाद काफी जड़ें निकली हुई पायी गयीं। कलमों को काटकर महाराज के पास लाया गया और उनके आदेश पर उन्हें महल के परिसर में रोप दिया गया। कुछ ही वर्षों में वे वृक्ष बनकर फल देने लगे। कलम द्वारा अनेक वृक्ष पैदा किये गये। महल के बाहर उनका एक छोटा-सा बाग बनवा दिया गया। कालांतर में इनसे अन्य वृक्ष उत्पन्न हुए और इस तरह रामनगर में लंगड़े आम के अनेकानेक बड़े-बड़े बाग बन गये। आज भी जिन्हें बनारस के आसपास या शहर के खुले स्थानों में जाने का मौका मिला होगा, उन्हें लंगड़े आम के वृक्षों और बागों की भरमार नजर आयी होगी। हिन्दू विश्वविद्यालय के विस्तृत विशाल प्रांगण में लंगड़े आम के सैकड़ों पेड़ हैं।
अब आप यह जानना चाहेंगे कि इसका नाम लंगड़ा क्यों पड़ा? बात यह थी कि साधु द्वारा लगाये हुए पौधों की समुचित देखरेख जिस पुजारी ने की थी, वह लंगड़ा था और इसीलिए इन वृक्षों से पैदा हुए आम का नाम लंगड़ा पड़ गया, और आज तक इस जाति के आम सारे भारत में इसी नाम से प्रसिद्ध हैं।
Thanks for this informative post.
ReplyDeleteबनारस की भांग और पान के बाद आम वाह
ReplyDeleteजय हो बाबा विश्वनाथ की
यह विशेष जानकारी मिली आपके माध्यम से, बनारस विशेष है।
ReplyDeleteपुरविया जी,
ReplyDeleteआज बनारस की सभ्यता के साथ साथ लंगड़ा आम की भी रोचक कहानी सुनकर बड़ी प्रसन्नता हुई !
यहाँ बंगलोर में हम तो लंगड़ा आम के लिए तरस जाते हैं !
आपकी पोस्ट मुझे BHU के दिनों की याद ताज़ा कर देती है !
बहुत बहुत आभार ,
-ज्ञानचंद मर्मज्ञ
जय हो बाबा विश्वनाथ की
ReplyDeleteअगले सीज़न में लंगड़े आम को गौर से देखेंगे...... फिर चखेंगे त्पश्चात खायेंगे..
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ReplyDeleteबनारस के बारे मे बहुत ही सुंदर प्रस्तुति........
ReplyDelete.
इंतजार
banaras ke bare me mahtvpoorn nayi jankari dene ke liye abhar!
ReplyDeletejai ho baba vishvnath ki!
langda aam ki katha sunane ke liye dhanyvad...
ReplyDeleteरोचक जानकारी। आगे भी ऐसी पोस्ट्स की अपेक्षा करते हैं और धीरे धीरे परिचय बढ़ायेंगे तभी तो लंगड़े आम की भी अपेक्षा रख सकेंगे, है न?
ReplyDeleteबनारस के लंगड़े आम के बारे मे बहुत ही सुंदर विशेष जानकारी !
ReplyDeleteक्रिसमस की शांति उल्लास और मेलप्रेम के
ReplyDeleteआशीषमय उजास से
आलोकित हो जीवन की हर दिशा
क्रिसमस के आनंद से सुवासित हो
जीवन का हर पथ.
आपको सपरिवार क्रिसमस की ढेरों शुभ कामनाएं
सादर
डोरोथी